Book Title: Kasaypahudam Part 05
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh

Previous | Next

Page 269
________________ २४० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ मज. सव्वद्धा । एवं [ मणुस ] पज्जत्त-मणुसिणीणं । णवरि जम्हि पलिदो० असंखे० भागो तम्हि अंतोमु० । मणुसपज्ज. इत्थि० जहण्णाणु० जहण्णुक्क० अंतोमु० । मणुसिणी० पुरिस०-णqस० छण्णोक भंगो । मणुसअपज्ज. छब्बीसंपयडीणं जहण्णाणु० ज० एगस०, उक्क० पलिदो० असंखे० भागो । अज० ज० अंतोमु०, उक्क० पलिदो. असंखे०भागो। ३६०. सोहम्मादि जाव णवगेवज्जा ति वावीसंपयडीणं जहण्णाजहण्णाणु० सव्वद्धा । सम्मत्त-अणंताणु०चउक्क० ओघं । एवमणुद्दिसादि जाव अवराइद त्ति । णवरि अणंताणु०चउक्क० जहण्णाणु० ज० अंतोमु०, उक्क० पलिदो० असंखे० भागो । एवं सव्वद । णवरि अणंताणु०चउक्क० जहण्णाणु० जहण्णुक्क० अंतोमु० । एवं जाणिदृण णेदव्वं जाव अणाहारि ति । मुहूर्त है। सब प्रकृतियोंके अजघन्य अनुभागका काल सर्वदा है। इसी प्रकार मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यिनियोंमें जानना चाहिए। इतना विशेष है कि जिसका काल पल्यके असंख्यातवें भाग बतलाया है उसका यहाँ अन्तर्मुहूते जानना चाहिए। मनुष्यपयोप्तकोंमें स्त्रीवेदक जघन्य अनुभागका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूते है। मनुष्यनियोंमें पुरुषवेद और नपुंसकवेदका भङ्ग छह नोकषायों की तरह है। मनुष्य अपर्याप्तकोंमें छब्बीस प्रकृतियोंके जघन्य अनभागका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। अजघन्य अनुभागका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। ३९०. सौधर्म स्वर्गसे लेकर नव ग्रैवेयक तकके देवो में बाईस प्रकृतियों के जघन्य और अजघन्य अनुभागका काल सर्वदा है। सम्यक्त्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्कका भङ्ग ओघके समान है। इसी प्रकार अनुदिशसे लेकर अपराजित विमान तकके देवो में जानना चाहिए। इतना विशेष है कि इनमें अनन्तानुबन्धी चतुष्कके जघन्य अनुभागका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल पल्य के असंख्यातवें भाग प्रमाण है। इसी प्रकार सर्वार्थसिद्धिमें जानना चाहिए। इतना विशेष है कि यहाँ अनन्तानबन्धीचतुष्कके जघन्य अनुभागका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। इस प्रकार जानकर अनाहारी पर्यन्त लेजाना चाहिये। विशेषार्थ-आदेशसे सामान्य नारकियो में बाईस प्रकृतियो का जघन्य अनुभाग मरकर नरकमें जन्म लेनेवाले हतसमुत्पत्तिककर्मा असंज्ञी पञ्चन्द्रियके होता है। एक साथ अनेक ऐसे जीव जन्म लें और दूसरे समयमे अनुभागको यदि बढ़ा लें तो जघन्य काल एक समय होता है और यदि लगातार ऐसे जीव उत्पन्न होते जाय तो उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण होता है। इसी प्रकार पञ्चन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्तकों में लगा लेना। मनुष्यों में मिथ्यात्व आदि नौ प्रकृतियो के जघन्य अनभागके जघन्य और उत्कृष्ट कालको भी इसी तरह घटा लेना चाहिये। अनन्तानुबन्धीका जघन्य अनुभाग संयुक्त होनेके प्रथम समयमें होता है, अतः नाना जीवों की अपेक्षा भी उसका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। देवों में अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि पर्यन्त अनन्तानुबन्धीका जघन्य अनुभाग विसंयोजकके होता है, अतः उसका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल अपराजित पर्यन्त पल्यका असं. ख्यातवाँ भाग है और सर्वार्थसिद्धिमें अन्तर्मुहूर्त है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438