Book Title: Kasaypahudam Part 05
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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गा० २२ ] अणुभागविहत्तीए पदणिक्खेवे समुक्कित्तणा
२९९ जाव अवराइद त्ति सत्तावीसंपयडीणं सव्वत्थोवा अप्पद० । अवहि० असंखे०गुणा । सम्मामि० णत्थि अप्पाबहुअं सव्वसिद्धिम्मि एवं चेव । णवरि संखेजगुणं कायव्वं । एवं जाणिदण णेदव्वं जाव अणाहारि त्ति ।
पदणिक्खेवो 5 ५१४. पदणिक्खेवे ति तत्थ इमाणि तिण्णि अणियोगद्दाराणि-समुक्त्तिणा सामित्तं अप्पाबहुअं चेदि । समुक्त्तिणाणु० दुविहो णियमा--जह० उकस्सओ
चेदि। उक्कस्से पयदं । दुविहो णिद्द सो-ओघेण आदेसेण य। ओघेण मिच्छत्त-सोल'सक०-णवणोक० अस्थि उक्कस्सिया वडी उक्कस्सिया हाणी अवहाणं च । सम्म०सम्मामिच्छत्ताणं अत्थि उक्कस्सिया हाणी अवहाणं च । एवं तिण्हं मणुस्साणं ।।
५१५. आदेसेणणेरइएसु छब्बीसं पयडीणमोघं । सम्म० अत्थि उक्क हाणी। एवं पढमपुढवि-तिरिक्वतिय'-देवोघं सोहम्मादि जाव सहस्सारकप्पो ति । एवं विदियादि जाव सत्तमि त्ति । णवरि सम्मत्त० उक्क० हाणी णत्थि । एवं पंचिं०तिरि०जोणिणी-पंचिंतिरि०अपज्ज-मणुसअपज्ज०-भवण-वाण-जोदिसिए त्ति ।
५१६. आणदादि जाव सव्वसिद्धि त्ति छब्बीसं पयडीणमत्थि उक्क० हाणी हैं। अनुदिशसे लेकर अपराजित विमान तकके देवोंमें सत्ताईस प्रकृतियोंकी अल्पतरविभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं। उनसे अवस्थितविभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिका अल्पबहुत्व नहीं है। सर्वार्थसिद्धिमें इसी प्रकार जानना चाहिए। इतना विशेष है कि असंख्यातगुणेके स्थानमें संख्यातगुणा कर लेना चाहिये। इस प्रकार जानकर अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिये।
पदनिक्षेप ६५१४. पदनिक्षेपमें ये तीन अनुयोगद्वार होते हैं -समुत्कीर्तना, स्वामित्व और अल्पबहुत्व । समुत्कीर्तनानुगम नियमसे दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है । निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नव नोकषायोंकी उत्कृष्ट वृद्धि, उत्कृष्ट हानि और अवस्थान होता है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट हानि और अवस्थान होता है । इसी प्रकार तीन प्रकारके मनुष्योंमें जानना चाहिए।
। ५१५. आदेशसे नारकियोंमें छब्बीस प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके समान है। सम्यक्त्व प्रकृतिकी उत्कृष्ट हानि होती है। इसी प्रकार पहली पृथिवी सामान्य तिर्यञ्च, पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च, पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चपर्याप्त, सामान्य देव और सौधर्मसे लेकर सहस्रार कल्प तकके देवोंमें जानना चाहिए । दूसरीसे लेकर सातवीं पृथिवी तकके नारकियोंमें इसी प्रकार जानना चाहिए। इतना विशेष है कि वहाँ सम्यक्त्व प्रकृतिकी उत्कृष्ट हानि नहीं होती। इसी प्रकार पञ्चन्द्रियतियश्च. योनिनी, पञ्चन्द्रियतिर्यञ्च अपर्याप्त, मनुष्यअपयोप्त, भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंमें जानना चाहिए।
५१६. आनत स्वर्गसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट हानि १. ता० प्रा० प्रत्योः पढमपुढवि पंचिंदियतिरिक्खतिय इति पाठः ।
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