Book Title: Kasaypahudam Part 05
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh

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Page 329
________________ ३०० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ अवहाणं च । णवरि आणदादि जाव णवगेवज्जा त्ति अणंताणु०४ ओघं । सम्मत्त० देवोघं । एवं जाणिदण णेदव्वं जाव अणाहारि त्ति । ६५१७. जहएणयं पि एवं चेव भाणिदव्यं । णवरि जहण्णणिद्द सो कायव्यो। ६५१८. सामित्ताणु० दुविहो-जहएणमुक्कस्सं च । उकस्से पयदं । दुविहो णि सो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छ०-सोलसक०-णवणोक० उक्कस्सिया वड्डी कस्स ? अण्णदरो जो चदुढाणियजवमज्झस्सुवरिमंतोमुहुत्तमणंतगुणाए बड्डीए वड्डिदो तदो उक्कस्ससंकिलेसं गंतूण उक्कस्साणु०भागं बंधमाणस्स तस्स उक्कस्सिया वड्डी। तस्सैव से काले उक्कस्समवहाणं । उक्क० हाणी कस्स ? अण्णदरो जो उकस्साणुभाग-. संतकम्मिओ तेण उक्कस्साणुभागकंडए हदे तस्स उक्कस्सिया हाणी। सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणमुक्क० हाणी कस्स ? अण्णदरो जो दंसणमोहक्ववो तेण पढमे अणुभागकंडए हदे तस्स उक्कस्सिया हाणी। तस्सेव से काले उक्कस्समवहाणं । एवं तिण्हं मणुस्साणं । ___ ५१६. श्रादेसेण णेरइएसु छब्बीसं पयडीणमोघं । सम्म० उक्क० हाणी कस्स ? अण्णदरो जो दसणमोहक्खवओ सम्मत्तहिदी अंतोमुहुत्तमत्थि त्ति रइएमु उववण्णो तस्स विदियसमयणेरइयस्स उक्क० हाणी । एवं पढमपुढवि०-तिरिक्खतिय-देवोघं और अवस्थान होता है। इतना विशेष है कि आनतसे लेकर नवग्रैवेयक तकके देवोंमें अनन्तानुबन्धीचतुष्कका भङ्ग ओघके समान है। सम्यक्त्व प्रकृतिका भङ्ग सामान्य देवोंके समान है। इस प्रकार जानकर अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिये। ५१७. इसी प्रकार जघन्यका भी कथन कर लेना चाहिये। अन्तर केवल इतना है कि उत्कृष्टके स्थानमें जघन्यका निर्देश करना चाहिये। ५१८ स्वामित्वानुगम दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टसे प्रयोजन है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नव नोकषायोंकी उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है ? जो चतुःस्थानिक यवमध्यके ऊपर अन्तमुहूर्त तक अनन्तगुणी वृद्धिसे बढ़ा, बादमें उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त होकर जिसने उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध किया उसके उत्कृष्ट वृद्धि होती है। तथा उसीके अनन्तर समयमें उत्कृष्ट अवस्थान होता है। उत्कृष्ट हानि किसके होती है। जिस उत्कृष्ट अनुभागकी सत्तावाले जीवने उत्कृष्ट अनुभाग का काण्डक घात किया है उसके उत्कृष्ट हानि हाती है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट हानि किसके हाती है ? जो दर्शनमोहका क्षपक जीव है उसके द्वारा प्रथम अनुभाग काण्डकका घात किये जाने पर उसके उत्कृष्ट हानि होती है। उसीके अनन्तर समयमें उत्कृष्ट अवस्थान होता है। इसी प्रकार तीन प्रकारके मनुष्योंमें जानना चाहिए। ५१९. श्रादेशसे नारकियोंमें छब्बीस प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके समान है। सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? जो दर्शनमोहका क्षपक जीव सम्यक्त्व प्रकृतिकी अन्तर्मुहूर्त प्रमाण स्थितिके रहते हुए नारकियोंमें उत्पन्न हुआ, द्वितीय समयवर्ती उस नारकीके सम्यक्त्व प्रकृतिकी उत्कृष्ट हानि होती है। इसी प्रकार प्रथम नरक, सामान्य तिर्यञ्च, पञ्चन्द्रिय तिर्यञ्च, पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चपर्याप्त, सामान्य देव और सौधर्म स्वर्गसे लेकर सहस्रार स्वर्ग तकके देवोंमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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