Book Title: Kasaypahudam Part 05
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh

View full book text
Previous | Next

Page 349
________________ ३२० . जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ अणुभागविहत्ती ४ देवोघं । णवरि अणंताणु० अणंतगुणवड्डि० असंखे०भागो। अणुद्दिसादि जाव अवराइदो त्ति सत्तावीसं पयडीणमणंतगुणहाणि० असंखे०भागो। अवहि० असंखेजा भागा । सम्मामि० पत्थि भागाभागो। एवं सबढे । णवरि संखेज्जं कायव्वं । एवं जाणिदूण णेदव्वं जाव अणाहारि ति । ६५५०. परिमाणाणु० दुविहो णिद्दे सो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण वावीसं पयडीणं तेरसपदवि० दव्वपमाणेण केव० ? अणंता । एवमणंताणु० चउक्क० । णवरि अवत्त० असंखेज्जा। सम्मत्त-सम्मामि० अणंतगुणहाणि० दव्वपमाणेण केव० ? संखेज्जा । सेसपदवि० असंखेज्जा । एवं तिरिक्खोघं । णवरि सम्मामि० अणंतगुणहाणी णत्थि । ६५५१. आदेसेण णेरइएस अट्ठावीसं पयडीणं सव्वपदवि० असंखेजा । णवरि सम्मत्त० अणंतगुणहाणि० ओघं ! एवं पढमपुढवि०-पंचिं०तिरिक्ख०-पंचिं०तिरिक्खपज्ज०-देवोघं सोहम्मादि जाव सहस्सारो ति । विदियादि जाव सत्तमि त्ति एवं चेव । णवरि सम्मत्त० अणंतगुणहाणी णत्थि । एवं जोणिणी-भवण०-वाणजोदिसिए ति। पांचदियतिरिक्खअपज्ज० छब्बीसं पयडीणं तेरसपदवि० सम्म०है। इतना विशेष है कि अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अनन्तगुणवृद्धिवाले असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। अनुदिशसे लेकर अपराजित विमान तकके देवोंमें सत्ताईस प्रकृतियोंकी अनन्तगुणहानिवाले जीव असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। अवस्थित विभक्तिवाले जीव असंख्यात बहुभागप्रमाण हैं। सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिका भागाभाग नहीं है। इसी प्रकार सर्वार्थसिद्धिमें जानना चाहिए। इतना विशेष है कि असंख्यातके स्थानमें संख्यात कर लेना चाहिये। इस प्रकार जानकर अनाहारी पर्यन्त लेजाना चाहिये। ६५५०. परिमाणानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे बाईस प्रकृतियो के तेरह पदविभक्तिवाले जीव द्रव्यप्रमाणसे कितने हैं ? अनन्त हैं। इसी प्रकार अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अपेक्षा परिमाण जानना चाहिए। इतना विशेष है कि इसके अवक्तव्य विभक्तिवाले जोव असंख्यात हैं। सम्यक्त्व प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिकी अनन्तगुणहानिवाले जीव द्रव्यप्रमाणसे कितने हैं ? संख्यात हैं। शेष पद विभक्तिवाले जीव असंख्यात हैं। इसी प्रकार सामान्य तिर्यञ्चो में जानना चाहिए। इतना विशेष हे कि तिर्यश्चा में सम्यग्मिथ्यात्वकी अनन्तगुणहानि नहीं है। ६५५१. आदेशसे नारकियोंमें अट्ठाईस प्रकृतियोंके सब पद विभक्तिवाले जीव असंख्यात हैं। इतना विशेष है कि सम्यक्त्व प्रकृतिकी अनन्तगुणहानिवालोंका परिमाण आपके समान है। इसी प्रकार पहली पृथिवी, पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च, पञ्चन्द्रिय तिर्यञ्च पर्याप्त, सामान्य देव और सौधर्मसे लेकर सहस्रार तकके देवो में जानना चाहिए। दूसरीसे लेकर सातवीं पृथिवी पर्यन्त इसी प्रकार जानना चाहिए। इतना विशेष है कि उनमें सम्यक् व प्रकृतिकी अनन्तगुणहानि नहीं होती। इसी प्रकार पञ्चन्द्रियतिर्यञ्च योनिनी, भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषिया में जानना चाहिए। पञ्चन्द्रियतिर्यश्च अपर्याप्तको में छब्बीस प्रकृतियों के तेरह पद विभक्तिवाले और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438