Book Title: Kasaypahudam Part 05
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh

Previous | Next

Page 339
________________ ३१० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ अणंतगुणवडिकालो ज० एगस०, उक्क० अंतोमु० । छहाणिकालो जहण्णुक्क० एगस० । कुदो ? ओकड्डणाए अणुभागकंडयदुचरिमादिफालिसु वा णिवदमाणियासु अणुभागडाणस्स घादाभावादो। तं पि कुदो ? अप्पहाणीकयसरिसधणियकम्मक्रवंधत्तादो चरिमवग्गणाए पविहाणं दुचरिमादिवग्गणाणं पहाणत्ताभावादो च । अवहि० ज० एगस०, उक्क० तेवहिसागरोवमसदं पलिदोवमस्स असंखे०भागेण सादिरेयं । सम्मत्त० अणंतगुणहाणिकालो ज० एगस०, उक्क० अंतोमु० । अवहिद० ज० अंतोमु०, उक्क. वेछावहिसागरोवमाणि तीहि पलिदो० असंखे०भागेहि सादिरेयाणि । अवत्त० जहण्णुक्क० एगस० । सम्मामि० अणंतगुणहाणि-अवत्त० जहण्णुक्क० एगस० । अवहि० जह० अंतोमु०, उक्क० सम्मत्तभंगो। अणंताणु०चउक्क० मिच्छत्तभंगो । णवरि अवत्त० जहण्णुक० एगस। चदुसंजलण. मिच्छत्तभंगो। णवरि अणंतगुणहाणिकालो उक्क० अंतोमुहुत्तं । एवं पुरिस० णवरि अणंतगुणहाणिकालो ज० एगस०, उक्क० दो आवलियाओ समयूणाओ।। ६ ५३७. आदेसेण णेरइएसु छब्बीसं पयडीणं छवडिकालो ओघं । छहाणिकालो जहण्णुक० एगस० । अवहि० ज० एगस०, उक० तेत्तीसं सागरो० देसूणाणि। अणंताणु० चउक्क. अवत्तव्व० ओघं । सम्मत्त० अणंतगुणहाणि-अवत्त० सम्मामि० समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। छह हानियोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है, क्योंकि अपकर्षणके द्वारा अनुभागकाण्डककी द्विचरम आदि फालियोंके पतन होने पर अनुभागस्थानका घात नहीं होता है। यह कैसे जाना ? क्योंकि प्रथम तो समान धनवाले कर्मस्कन्ध अप्रधान हैं। दूसरे अन्तिम वर्गणामें प्रविष्ट हुई द्विचरम आदि वर्गणाओंकी यहाँ प्रधानता नहीं हैं । अवस्थितविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक एक सौ त्रेसठ सागर है। सम्यक्त्व प्रकृतिकी अनन्तगुणहानिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। अवस्थितविभक्तिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल पल्यके तीन असंख्यात भागोंसे अधिक दो छियासठ सागर है। अवक्तव्यविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। सम्यग्मिथ्यात्वकी अनन्तगुणहानि और अवक्तव्य विभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अवस्थितविभक्तिका जघन्य काल अन्तर्महर्त है और उत्कृष्ट कालका भङ्ग सम्यक्त्वके समान है। अनन्तानुबन्धीचतुष्कका भङ्ग मिथ्यात्वके समान है। इतना विशेष है कि अवक्तव्य विभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। चार संज्वलन कषायोंका भङ्ग मिथ्यात्वके समान है। इतना विशेष है कि अनन्तगणहानिका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। इसी प्रकार पुरुषवेदकी अपेक्षा जानना चाहिए। इतना विशेष है कि अनन्तगुणहानिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल एक समय कम एक आवली है। ५३७. श्रादेशसे नारकियोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी छह वृद्धियोंका काल ओघके समान है। छह हानियोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अवस्थित विभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर है। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अवक्तव्य विभक्तिका भङ्ग ओघके समान है । सम्यक्त्व प्रकृतिकी अनन्तगुणहानि और अवक्तव्य विभक्तिका काल तथा सम्यग्मिथ्यात्वकी अवक्तव्य विभक्तिका काल ओघके समान है। सम्यक्त्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438