Book Title: Kasaypahudam Part 05
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh

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Page 338
________________ गा० २२] अणुभागविहत्तीए वढीए कालो ३०९ अवत्तव्व० ओघं । एवं पढमपुढवि-तिरिणतिरिक्ख-देवोघं सोहम्मादि जाव सहस्सारो ति । विदियादि जाव सत्तमि ति एवं चेव । णवरि सम्मत्त० अणंतगुणहाणी णत्थि। एवं पंचिंदियतिरिक्खजोणिणी-भवण०-वाण-जोदिसिए ति ।। ५३५. पंचिंदियतिरिक्ख०--मणुसअपज्ज. छब्बीसं पयडीणं छवडि-छहाणिअवहाणाणि सम्म०-सम्मामि० अवहिदं च कस्स ? अण्णद०। आणदादि जाव णवगेवज्जा ति वावीसं पयडीणमणंतगुणहाणी अवहिदं च कस्स ? अण्णद० सम्माइहिस्स मिच्छाइहिस्स वा। सम्मत्त० अणंतगुणहाणी कस्स ? अण्णद. कदकरणिज्जस्स । सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणमवहि-अवत्त० ओघं। अणंताणु० चउक० ओघं। अणुदिस्सादि जाव सव्वदृसिद्धि त्ति सत्तावीसं पयडीणमणंतगुणहाणी अवडि० सम्मामिच्छ० अवहिदं च कस्स ? अण्णद० सम्मादिहिस्स। अण्णदरसदो' विमाणोगाहणविसेसाभावपदुप्पायणफलो । एवं जाणिदूण णेदव्वं जाव अणाहारि त्ति । ६५३६. कालाणु० दुविहो णिद्दे सो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छत्तअहक०-अहणोक० पंचवडिकालो जह० एगसमो, उक्क० आवलियाए असंखे० भागो। ग्मिथ्यात्वकी अवस्थितविभक्ति और अवक्तव्यविभक्तिका भङ्ग ओघकी तरह है। इसी प्रकार पहली पृथिवी, सामान्य तिर्यञ्च, पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च, पञ्चेन्द्रियतियंञ्चपयोप्त, सामान्य देव और सौधर्म स्वर्गसे लेकर सहस्रार स्वर्ग तकके देवोंमें आनना चाहिए। दूसरीसे लेकर सातवीं पृथिवी तकके नारकियोंमें इसी प्रकार जानना चाहिए। इतना विशेष है कि उनमें सम्यक्त्वकी अनन्त. गुणहानि नहीं होती। इसी प्रकार पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिनी, भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंमें जानना चाहिए। १५३५. पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी छह वृद्धियां, छह हानियां और अवस्थान तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अवस्थितविभक्ति किसके होती हैं ? किसी भी पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तके होती हैं । आनतसे लेकर नवग्रैवेयक तकके देवोंमें बाईस प्रकृतियोंकी अनन्तगुणहानि और अवस्थान किसके होते हैं ? किसी भी सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टिके होते हैं। सम्यक्त्व प्रकृतिकी अनन्तगुणहानि किसके होती है ? किसी भी कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टिके होती है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अवस्थित और अवक्तव्य विभक्तियोंका भङ्ग ओघके समान है। अनन्तानुबन्धीचतुष्कका भङ्ग ओघके समान है। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें सत्ताईस प्रकृतियोंकी अनन्तगुणहानि और अवस्थित तथा सम्यग्मिथ्यात्वकी अवस्थितविभक्तियाँ किसके होती हैं ? किसी भी सम्यग्दृष्टिके होती हैं। यहाँ 'अन्यतर' शब्दका प्रयोजन किसी विमान विशेष या अवगाहन विशेषके अभावको बतलाता है। इस प्रकार जानकर अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिये ।। ९५३६. कालानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे मिथ्यात्व, आठ कषाय और आठ नोकषायोंकी पाँच वृद्धियोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलीके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। अनन्तगुणवृद्धिका जघन्य काल एक १. श्रा० प्रती अण्णदस्सद्दो इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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