Book Title: Kasaypahudam Part 05
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh

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Page 345
________________ ३१६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ सम्मत्त० अणंतगुणहाणि-अवहि० सम्मामि० अवहि० णत्थि अंतरं। एवं जाणिदूण णेदव्वं जाव अणाहारि त्ति । ६५४५. णाणाजीवेहि भंगविचयाणुगमेण दुविहो णिद्दे सो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण वावीसं पयडीणं तेरसपदा णियमा अस्थि । अणंताणु० चउक० अवत्तव्व० भयणिज्ज । सेसपदा णियमा अत्थि : भंगा तिरिण । सम्म० --सम्मामि० अवढि० णियमा अत्थि । सेसपदा० भयणिज्जा । भंगा णव । एवं तिरिक्खा० । णवरि सम्मामि० अणंतगुणहाणी णत्थि । भंगा तिषिण । प्रकृतियोंकी अनन्तगुणहानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। अवस्थित विभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय है। सम्यक्त्व प्रकृतिकी अनन्तगुणहानि और अवस्थित विभक्तिका तथा सम्यग्मिथ्यात्वकी अवस्थित विभक्तिका अन्तर नहीं है। इस प्रकार जानकर अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिये। विशेषार्थ-ओघसे बाईस प्रकृतियों की अनन्तगुणवृद्धिका उत्कृष्ट अन्तर तीन पल्य और एक सौ त्रेसठ सागर कहा है सो अनन्तगणवृद्धि मिथ्यादृष्टिके ही होती है और भोगभूमिमें तथा आनतादिकमें मिथ्यादृष्टिके भी नहीं होती, अत: दो बार छियासठ छियासठ सागर तक वेदक सम्यक्त्वके साथ बिताने तथा एक बार उपरिम अवेयकमें और तीन पल्यकी स्थिति के साथ उत्कृष्ट भोगभूमिमें बितानेसे अनन्तगुणवृद्धिका उत्कृष्ट अन्तर तीन पल्य और एक सौ त्रेसठ सागर होता है। अनन्तगुणहानिका उत्कृष्ट अन्तर एक सौ त्रेसठ सागर और पल्य के असंख्यातवें भाग होता है सो उतना ही अवस्थितका उत्कृष्ट काल है, अतः अनन्तगुणहानि करके उतने काल तक अवस्थित रहकर पुन: अनन्तगुणहानि करनेसे उतना अन्तर काल होता है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिकी अवक्तव्य विभक्तिका जघन्य अन्तरकाल पल्यका असंख्यातवाँ भाग और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम अर्धपुद्गल परावर्तन पूर्ववत् जानना। अनन्तानुबन्धकी अवस्थित विभक्तिका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम दो छियासठ सागर है क्योंकि अनन्तानुबन्धीकी अवस्थित विभक्ति करके अनन्तानुबन्धीके विसंयोजन पूर्वक वेदक सम्यग्दृष्टि होकर कुछ कम छियासठ सागर तक सम्यक्त्वके साथ रहकर पुन: सम्यग्मिथ्यात्व गणस्थानमें जाकर पुन: सम्यक्त्व ग्रहण करके कुछ कम छियासठ सागर तक सम्यक्त्वके साथ रहकर मिथ्यात्वमें जाकर अनन्तानुबन्धीका बन्ध करनेके पश्चात् अवस्थित विभक्तिको करता है। आदेशले नारकियो में छब्बीस प्रकृतियो की छह वृद्धियो और छह हानियों आदिका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है। वृद्धि मिथ्यादृष्टिके होती है और हानि दोनो के होती है। और नरकमें मिथ्यात्वका अन्तर काल भी कुछ कम तेतीस सागर है और सम्यक्त्वका अन्तर काल भी कुछ कम तेतीस सागर है अत: उतना ही उन विभक्तियो का भी अन्तर काल जानना । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अवस्थित और अवक्तव्य विभक्तिका भी उत्कृष्ट अन्तर काल इसी प्रकार जानना । प्रत्येक नरकमें यह अन्तर काल कुछ कम अपनी अपनी स्थिति प्रमाण है। ९५४५. नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय अनुगमसे निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे बाईस प्रकृतियोंके तेरह पद नियमसे होते हैं। अनन्तानुबन्धीचतुष्कका अवक्तव्य पद भजनीय है. शेष पद नियमसे होते हैं। भंग तीन हैं। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिका अवस्थित पद नियमसे होता है, शेष पद भजनीय हैं । भंग नौ हैं। इसी प्रकार सामान्य तिर्यञ्चोंमें जानना चाहिए। इतना विशेष है कि सम्यग्मिथ्यात्वकी अनन्तगुणहानि नहीं होती। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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