Book Title: Kasaypahudam Part 05
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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गा० २२]
अणुभागविहत्ती वड्डीए समुच्कित्तणा
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देवोघं भवणादि जाव सहस्सारो ति । पंचिंदियतिरिक्खअपज्ज० छब्बीसं पयडी तिणि पदा सरिसा । एवं मणुसअपज्ज० । आणदादि जाव सव्वहसिद्धि त्ति छब्बीसं पयडीणं ज० हाणी अवद्वाणं च दो वि सरिसाणि । णवरि आणदादि जाव णवगेवज्जा तिताणु ० चउक० देवोघं । एवं जाणिदूण णेदव्वं जाव अणाहारि त्ति । एवं पदणिक्खेवो समत्तो । वित्ती
$ ५३१. वडिविहत्तीए तत्थ इमाणि तेरस अणियोगद्दाराणि णादव्वाणि भवंति । तं जहा - समुक्कित्तणा एगजीवेण सामित्तं कालो अंतरं णाणाजीवेहि भंगविचओ भागाभागं परिमाणं खेत्तं पोसणं कालो अंतरं भावो अप्पाबहु चेदि । तत्थ समुकित्तणाणु ० दुविहो णिद्द सो- ओघेण आदेसेण य । ओघेण छब्बीसं पयडीणमत्थि afront at aort हाणी अवद्वाणं च अणंताणु ० चउक्क० अवत्तव्वं च । सम्मत्त-सम्मा मिच्छत्ताणमत्थि अनंतगुणहाणी अवद्वाणमवत्तव्वं च । एवं णेरइयाणं । णवरि सम्मामि० अनंतगुणहाणी णत्थि । एवं पढमपुढवि० - तिरिक्खतिय • - देवोघं सोहम्मादि जाव सहसारो ति । विदियादि जाव सत्तमि त्ति एवं चेव । णवरि सम्मत्त० सम्मामिच्छत्तभंगो | एवं पंचिंदियतिरिक्खजोणिणी भवरण ० -वाण० - जोदिसिया त्ति ।
और भवनवासीसे लेकर सहस्रार स्वर्गतकके देवोंमें जानना चाहिए। पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च अपर्याप्तकों में छब्बीस प्रकृतियोंके तीनों पद समान हैं। इसी प्रकार मनुष्य अपर्याप्तकों में जानना चाहिए ।
नत से लेकर सर्वार्थसिद्धि तक के देवोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी जघन्य हानि और अवस्थान दोनों ही समान हैं । इतना विशेष है कि नतसे लेकर नवप्रैवेयक तकके देवोंमें अनन्तानुबन्धी चतुष्कका भङ्ग सामान्य देवोंकी तरह है । इस प्रकार जानकर अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिये । इस प्रकार पदनिक्षेप समाप्त हुआ । वृद्धिविभक्ति
९५३१. वृद्धि विभक्तिमें ये तेरह अनुयोगद्वार जानने चाहिये। जो इस प्रकार हैंसमुत्कीर्तना, एक जीव की अपेक्षा स्वामित्व, काल, अन्तर, नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय, भागाभाग, परिमाण, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव और अल्पबहुत्व । उनमें से समुत्कीर्तनानुगम की अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है— ओघ और आदेश । ओघसे छब्बीस प्रकृतियोंकी छह प्रकार की वृद्धि, छह प्रकारकी हानि और अवस्थान होता है । अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अवक्तव्यविभक्ति भी होती है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व की अनन्तगुणहानि, अवस्थान और अवक्तव्यविभक्ति होती हैं । इसी प्रकार नारकियोंमें जानना चाहिए। इतना विशेष है कि वहाँ सम्यग्मिथ्यात्व की हानि नहीं होती । इसी प्रकार पहली पृथिवी, सामान्य तिर्यञ्च पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च, पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च पर्याप्त, सामान्य देव और सौधर्म स्वर्ग से लेकर सहस्रार स्वर्ग तकके देवोंमें जानना चाहिए। दूसरी से लेकर सातवीं पृथिवी तकके नारकियों में इसी प्रकार जानना चाहिए। इतना विशेष है कि इनमें सम्यक्त्वप्रकृतिका भङ्ग सम्यग्मिथ्यात्व के समान है । इसी प्रकार पञ्चेन्द्रियतिर्यच्च योनिनी, भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंमें जानना चाहिये ।
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