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गा० २२) अणुभागविहत्तीए भुजगारअप्पाबहुअं
२९७ उक्क. सत रादिदियाणि । अवहि० णत्थि अंत्तरं । अणंताणु०चउक्क० भुज०-अवत्तव्व० जह० एगस०, उक्क० चउवीसमहोरत्ते सादिरेगे। सम्म०-सम्मामि० देवोघं । अणुद्दिसादि जाव सव्वदृसिद्धि ति सत्तावीसंपयडीणमप्प० ज० एगस०, उक्क. वासपुधत्तं पलिदो० संखे०भागो' । अहावीसंपयडीणमवहि. णत्थि अंतरं । एवं जाणिदूण णेदव्वं जाव अणाहारि ति।
___ ५०६. भावाणु० सव्वत्थ ओदइयो भावो । एवं जाणिदूण णेदव्वं जाव अणाहारि ति ।
$ ५१०. अप्पाबहुगाणुगमेण दुविहो णिद्दे सो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छत्त-बारसक०-णवणोक. सव्वत्थोवा अप्पदरविहत्तिया जीवा । भुजविहत्ति० जीवा असंखे०गुणा । अवहि० जीवा संखे० गुणा। सम्म०-सम्मामि० सव्वत्थोवा अप्पदरवि० । अवत्त० असंखे० गुणा । अवहि० असंखे०गुणा। अणंताणु० चउक्क० सव्वत्थोवा अवत्तव्य । । अप्पद० अणंतगुणा । भुज० असंखे गुणा । श्रवहि० संखे०गुणा। नहीं है। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी भुजगार और अवक्तव्यका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ अधिक चौबीस रात दिन है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भङ्ग सामान्य देवोंकी तरह है। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें सत्ताईस प्रकृतियोंकी अल्पतर विभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर विजयादिक चारमें वर्षपृथक्त्वप्रमाण और सर्वार्थसिद्धिमें पल्यके संख्यातवें भागप्रमाण है । अट्ठाईस प्रकृतियोंकी अवस्थित विभक्ति का अन्तर नहीं है। इस प्रकार जानकर अनाहारी पर्यन्त लेजाना चाहिये।
विशेषार्थ ओघसे जिन प्रकृतियोंके जो विभक्तिवाले जीव सदा पाये जाते हैं उनमें अन्तर हो ही कैसे सकता है ? ओघसे सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतर विभक्तिवालों का उत्कृष्ट अन्तर छ मास है, क्योंकि इन प्रतियोंकी यह विभक्ति दर्शनमोहके क्षपकके होती है और नाना जीवोंकी अपेक्षा उसके क्षपणकालका उत्कृष्ट अन्तर छ मास होता है। शेष सुगम है ।
१५८९. भावानुगमकी अपेक्षा सर्वत्र औदयिक भाव है। इस प्रकार जानकर अनाहारी पर्यन्त लेजाना चाहिये।
१५१०. अल्पबहुत्वानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मिथ्यात्व, बारह कषाय और नव नोकषायांकी अल्पतर विभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं। उनसे भजगार विभक्तिवाले जीव असंख्यातगणे हैं। उनसे अवस्थित विभक्तिवा संख्यातगुणे हैं। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतर विभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं। उनसे अवक्तव्य विभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे अवस्थितविभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अवक्तव्य विभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं। उनसे अल्पतर विभक्तिवाले जीव अनन्तगुणे हैं। उनसे भुजकार विभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं । उनसे अवस्थित विभक्तिवाले जीव संख्यातगुणे हैं ।
१. ता० प्रती पलिदो० असंखे भागो इति पाठः ।
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