Book Title: Kasaypahudam Part 05
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ _ ४२७. जोदिसि. विदियपुढविभंगो । सोहम्मादि० जाव गवगेवजा मिच्छत्त० जहएणाणु० सम्मत-बारसक०-णवणोक० णि० अज० अणंतगुणभहिया। सम्मत. जहणाण. बारसक०-णवणोक० किं ज० किमज. ? तं तु अर्णतगुणभहिया । अणंताणुकोध० ज० मिच्छत्त-सम्मत-बारसक०-णवणोक० णि. अज० अणंतगुणब्भहिया । तिण्हमणताणुबंधीणं तं तु छहाणपदिदा । एवं सेसतिण्हमणंताणुबंधीणं । अपच्चक्खाणकोध० ज० एकारसक० णवणोक० णि. जहण्णा। सम्मत्त० सिया अत्थि सिया णत्थि । जदि अत्थि तं तु अणंतगुणब्भहियं । एवमेकारसक० णवणोकसायाणं । अणुदिसादि जाव सव्वदृसिद्धि चि एवं चेव । णवरि अणंताणुकोध० ज० मिच्छत्त-सम्मच-बारसक०-णवणोक० णियमा० अज० अणंतगुणब्भहिया। तिषिणक० णि. जहएणा । एवं सेसतिएहं कसायाणं । एवं जाणिदण णेदव्वं जाव अणाहारि ति। : ..... $ ४२८. भावाणु० सव्वत्थ ओदइओ भावो ।
* अप्पाबहुमुक्कस्सयं जहा उक्कस्सबंधो तहा।
६ ४२७ ज्योतिषियोंमें दूसरी पृथिवीके समान भङ्ग है। सौधर्म स्वर्गसे लेकर नव वेयक तकके देवोंमें मिथ्यात्वकी जघन्य अनुभाग विभक्तिवालेके सम्यक्त्व, बारह कषाय और नव नोकपायोंका नियमसे अनन्तगुणे अधिक अनुभागको लिए हुए अजघन्य होता है। सम्यक्त्वकी जघन्य अनुभाग विभक्तिवालेके बारह कषाय और नव नोकषायोंका क्या जघन्य होता है या अजघन्य ? वह जघन्य भी होता है और अजघन्य भी। यदि अजघन्य होता है तो वह अनन्तगुणे अधिक अनुभागको लिए हुए होता है । अनन्तानुबन्धी क्रोधकी जघन्य अनुभाग विभक्तिवाले के मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, बारह कषाय और नव नोकषायोंका नियमसे अजघन्य होता है जो अनन्तगुणे अधिक अनुभागको लिए हुए होता है। शेष तीनों अनन्तानुबन्धी कषायोंका जघन्य भी होता है और अजघन्य भी। यदि अजघन्य होता है तो वह षट् स्थान पतित होता है। इसी प्रकार शेष तीनों अनन्तानुबन्धियोंकी अपेक्षा सन्निकर्ष जानना चाहिए । अप्रत्याख्यानावरणीय क्रोधकी जघन्य अनुभाग विभक्तिवालेके शेष ग्यारह कषाय और नव नोकषायो का नियमसे जघन्य होता है। सम्यक्त्व कदाचित् होता है कदाचित् नहीं होता। यदि होता है तो जघन्य भी होता है और अजघन्य भी। यदि अजघन्य होता है तो वह अनन्तगुणे अधिक अनुभागको लिए हुये होता है। इसी प्रकार ग्यारह कषाय
और नव नोकषायोंकी अपेक्षा सन्निकर्ष जानना चाहिये। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें ऐसे ही जानना चाहिये। इतना विशेष है कि अनन्तानुबन्धी क्रोधकी जघन्य अनुभाग विभक्तिवालेके मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, बारह कषाय और नव नोकषायोंका नियमसे अनन्तगुणा अधिक अजघन्य अनुभाग होता है। शेष तीनो अनन्तानुबन्धियो का नियमसे जघन्य होता है। इसी प्रकार शेष तीनों अनन्तानुबन्धी कषायो की अपेक्षा सन्निकर्ष जानना चाहिए। इस प्रकार जानकर अनाहारी पर्यन्त लेजाना चाहिए।
६४२८ भावानुगमकी अपेक्षा सब विभक्तिवालोंके औदयिक भाव होता है। * जैसे उत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्पबहुत्व है वैसे ही उत्कृष्ट सत्कर्मका अल्प
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