Book Title: Kasaypahudam Part 05
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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जयधवलासहिदे कषायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ ४८७. णाणाजीवेहि भंगविचयाणुगमेण दुविहो णिद्दे सो-ओघेण आदेसेण य। तत्थ ओघेण वावीसंपयडीणं भुज०-अप्पद०-अवहि० णियमा अस्थि । एवं अणंताणु० चउक्क० । णवरि अवत्तव्व० भयणिज्जा । भंगा तिण्णि । सम्मत्त-सम्मामिच्छताणमवहि० णियमा अस्थि । सेसपदा भयणिज्जा । भंगा णव । एवं तिरिक्खोघं ।
४८८. आदेसेण णेरइएमु छब्बीसंपयडीणं भुज-वहि० सम्मत्त-सम्मामि० अवढि० णियमा अस्थि । सेसपदा भयणिज्जा । वावीसंपयडीणं सम्मामि० भंगा तिण्णि । सम्मत्त० अणंताणु०चउक्काणं भंगा णव । एवं सत्तसु पुढवीसु सव्वपंचिंदिय तिरिक्ख--मणुसतिय--देवोघं भवणादि जाव सहस्सार ति । णवरि विदियादिपुढवि०पंचिंदियतिरिक्खजोणिणी०--भवण.--वाण०--जोइसिए त्ति सम्मत्त भंगा तिषिण। पंचि०तिरि०अपज्ज० सम्मत्त ०-सम्मामि० णत्थि भंगा । सेससव्वपयडीणं तिषिण चेव भंगा। मणुसअपज्ज. सव्वपयडीणं सवपदा भयणिज्जा। छब्बीसं पयडीणं भंगा छब्बीस । सम्मत्त-सम्मामि० मंगा दोगिण ।
४८६. आणदादि जाव सबसिद्धि ति अहावीसं पयडीणमवहिणियमा अत्थि । सेसपदा भयणिज्जा। णवरि आणदादि जाव णवगेवज्जा त्ति तेवीसं पयडीणं तो संभव ही नहीं है, अवस्थितविभक्ति होती है, किन्तु इन प्रकृतियोंमें उसका इतना अन्तराल तभी संभव हो सकता है जब कोई उनकी उद्वेलना करदे और अन्तमे पुनः सम्यक्त्वके साथ दोनों प्रकृतियों की सत्ताको उत्पन्न करके अवस्थित विभक्ति करे, यह बात अनुदिशादिकमे संभव नहीं है। इसीप्रकार सौधर्मादिकमे भी अन्तर समझना चाहिए।
४८७. नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचयानुगमसे निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। उनमेंसे ओघसे बाईस प्रकृतियोंकी भुजगार, अल्पतर और अवस्थित विभक्तिवाले जीव नियमसे हैं। इसी प्रकार अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अपेक्षा जानना चाहिए । इतना विशेष है कि अवक्तव्य विभक्ति भजनीय है। भंग तीन होते हैं। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अवस्थित विभक्तिवाले जीव नियमसे हैं। शेष विभक्तियां भजनीय हैं। भंग नौ होते हैं। इसीप्रकार सामान्य तिर्यंचोंमें जानना चाहिए।
४८८. आदेशसे नारकियोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी भुजगार और अवस्थितविभक्तिवाले जीव तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिकी अवस्थितविभक्तिवाले जीव नियमसे हैं। शेष विभक्तियाँ भजनीय हैं। बाईस प्रकृतियोंके और सम्यग्मिथ्यात्वके तीन भंग होते हैं। सम्यक्त्व
और अनन्तानुबन्धीचतुष्कके नौ भंग होते हैं। इसप्रकार सातों पृथिवी, सब पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च, सामान्य मनुष्य, मनुष्य पर्याप्त, मनुष्यिनी और सामान्य देव तथा भवनवासीसे लेकर सहस्रार स्वर्ग तकके देवोंमें जानना चाहिए। इतना विशेष है कि दूसरी आदि पृथिवयिोंमें तथा पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च योनिनी, भवनवासी व्यन्तर और ज्योतिषियोंमें सम्यक्त्वके तीन भंग होते हैं। पञ्चेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्तकोंमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके भंग नहीं होते। शेष सब प्रकृतियोंके तीन ही भंग होते हैं। मनुष्य अपर्याप्तकोंमें सब प्रकृतियोंके सभी पद भजनीय हैं। छब्बीस प्रकृतियोंके छब्बीस भंग होते हैं तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके दो भंग होते हैं।
४८९. आनतसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें अट्ठाईस प्रकृतियोंकी अवस्थित विभक्तिवाले जीव नियमसे हैं । शेष पद भजनीय हैं । इतना विशेष है कि आनतसे लेकर नवौवेयक तकके
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