Book Title: Kasaypahudam Part 05
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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गा० २२]
अणुभागविहत्तीए भुजगारअंतरं
२८५
उत्कृष्ट काल कहा है। भुजगार या अल्पतर विभक्ति होकर कुछ कम तेतीस सागर पर्यन्त अवस्थितविभक्ति रही, उसके पश्चात् पुनः भुजगार या अल्पतर विभक्तिके होनेसे दोनों विभक्तियो का अन्तर काल होता है। नरक में सम्यक्त्व प्रकृतिके अल्पतरका अन्तर काल नहीं है, क्योंकि वहाँ उसका अल्पतर कृतकृत्य वेदक के ही होता है और वह लगातार क्षय पर्यन्त होता है। और सम्यग्मिथ्यात्वका तो वहाँ अल्पतर होता ही नहीं है। इन दोनों प्रकृतियों की अवस्थितविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय अथवा दो समय कहा है कोई २८ की सत्तावाला मिथ्यादृष्टि उद्वलना करता हुआ प्रथमोपशम सम्यक्त्व के सन्मुख हुआ और अनिवृत्तिकरणके द्विचरम समयमें उद्वलना कर सम्यक्त्व प्रकृतिका अभाव कर चरम समयमें २७ की सत्तावाला हो गया या सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वलना कर चरम समयमें २६की सत्तावाला हो गया। अगले समयमें उपशमसम्यग्दृष्टि हो सम्यक्त्व व सम्यग्मिथ्यात्वकी सत्तावाला हो गया इस प्रकार अनवृत्तिकरणके एक चरम समयका अवस्थितमें अन्तर पड़ा अत: एक समय कहा । परन्तु जिन्होने सम्यक्त्वके प्रथम समयको प्रवक्तव्यमें ले लिया उनके मतमें दो समय अन्तर होता है । उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है, क्योंकि अवस्थित विभक्तिके पश्चात द्वलना करके जब तेतीस सागर काल पूर्ण होने में कुछ काल अवशेष रहे तो सम्यग्दृष्टि होकर सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका सत्त्व करके दूसरे समयमें अवस्थित विभक्ति के होनेसे उतना अन्तर काल पाया जाता है। इसी कार अवक्तव्यविभक्तिका भी उत्कृष्ट अन्तर काल लगा लेना चाहिये। तिर्यञ्चो में छब्बीस प्रकृतियों की अवस्थित विभक्तिका जितना उत्कृष्ट काल पहले कहा है उतना ही उनमें छब्बीस प्रकृतियों की अल्पतर विभक्तिका उत्कृष्ट अन्तर काल होता है। इसी तरह अनन्तानुबन्धीमें भुजगारका उत्कृष्ट अन्तर काल जानना चाहिए । अनन्तानुबन्धीकी अवस्थितविभक्तिका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य है, क्योकि देवकुरु उारकुरुका कोई तिर्यञ्च अनन्तानुबन्धीकी अवस्थित विभक्ति करके उसका विसंयोजन करदे । अन्त समयमें सम्यक्त्वसे च्युत होकर मिथ्यात्वमें आकर अनन्तानुबन्धीका बन्ध करके पुनः अवस्थित विभक्ति यदि करे तो उत्कृष्ट अन्तर कुछकम तीन पल्य होता है। पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च और पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च पर्याप्तमें बाईस प्रकृतियोंकी भुजगार विभक्तिका उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटि पृथक्त्व कहा है जब कि उनमें अवस्थित विभक्तिका काल अन्तर्मुहूर्त अधिक तीन पल्य है, इसका कारण यह है कि तीन पल्यकी स्थिति भोगभूमिमें होती है किन्तु वहां भुजगार विभक्ति नहीं होती, अत: उक्त दोनों तिर्यञ्चोंमें पूर्वकोटि पृथक्त्व असंज्ञियोंके उत्कृष्ट कालकी अपेक्षासे अन्तरकाल कहा है। मनुष्यके तीन भेदोंमें बाईस प्रकृतियोंकी भुजगार विभक्तिका उत्कृष्ट अन्तर कुछकम पूर्वकोटि है, क्योंकि भुजगार विभक्ति करके सम्यग्दृष्टि होजाने पर और अन्तमें सम्यक्त्वसे च्युत होकर मिथ्यात्वमें आकर पुन: भुजगार करनेसे उतना अन्तर पाया जाता है। मनुष्योंमें असंज्ञी नहीं होते, अतः वेदकसम्यक्त्वकी अपेक्षा अन्तर कहा है। वेदकसम्यग्दृष्टि मनुष्यसे मनुण्य नहीं होता, अत: कर्मभूमियाके एक भवकी अपेक्षा उत्कृष्ट आयुकी अपेक्षा उत्कृष्ट अन्तर काल कहा है। देवो में बाईस प्रकृतियोंकी भुजगार विभक्तिका उत्कृष्ट अन्तर साढ़े अठारह सागर सहस्रार स्वर्गकी अपेक्षा जानना चाहिए, क्योंकि इन प्रकृतयिोंमें आगे भुजगार नहीं होता । तथा अल्पतरविभक्तिका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर उपरिमोवेयककी अपेक्षा जानना चाहिए, क्योकि आगे सब सम्यग्दृष्टि ही होते हैं, इस लिये अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तक अल्पतर विभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त ही हाता है। सामान्य देवोंमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अवस्थित और अवक्तव्य विभक्तिका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर भी उपरिम प्रैवेयक की अपेक्षासे होता है, क्योकि उससे ऊपर सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अवक्तव्य विभक्ति
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