Book Title: Kasaypahudam Part 05
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
View full book text
________________
२८४
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ अद्धसागरोवमेण सादिरेयाणि । अप्पदर० ज० अंतोमु०, उक्क० एकत्तीसं सागरो देस्णाणि । अवहि० ओघं । सम्मत्त० अप्पदर० णत्यि अंतरं । सम्मत्त०-सम्मामि० अवहि-अवत्तव्व० ज० एगस० पलिदो० असंखे० भागो, उक्क० एकत्तीसं सागरो० देसूणाणि । अणंताणु०चउक्क. भुज०-अवहि०-अप्पदर०--अवत्तव्व० ज० एगस० अंतोमु०, उक्क० एकत्तीसं सागरो० देसूणाणि । एवं सोहम्मादि जाव सहस्सारो ति । णवरि सगहिदी देसणा। एवं भवण-वाण-जोदिसिए ति । णवरि सगहिदी देसूणा । सम्मत्त० अप्पद० णत्थि । आणदादि जाव णवगेवज्ज० वावीसंपयडीणमवहि. जहण्णुक्क० एगस । अप्पद० ज० अंतोमु०, उक्क० सगहिदी देसूणा । सम्मत्त० अप्पद० पत्थि अंतरं । सम्मत्त-सम्मामि० अवहि०-अवत्तव्व. अणंताणु.चउक्क० भुज०-अप्पद०-अवहि-अवत्तव्व० ज० ओघं, उक्क. सगहिदी देसूणा ! अणुद्दिसादि जाव सव्वदृसिदि त्ति छब्बीसंपयडीणमवहिद० जहण्णुक्क० एगस० । अप्पद. जहण्णुक. अंतोमु० । सम्मत्त० अप्पद० णत्थि अंतरं। सम्मत्त-सम्मामि० अवहि० पत्थि अंतरं । एवं जाणिदण णेदव्वं जाव अणाहारि ति। उत्कृष्ट अन्तर अाधासागर अधिक अठारह सागर है। अल्पतर विभक्तिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर है। अवस्थित विभक्तिका अन्तर ओघके समान है। सम्यक्त्वकी अल्पतर विभक्तिका अन्तर नहीं है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिध्यात्वकी अवस्थित और अवक्तव्य विभक्तिका जघन्य अन्तर क्रमशः एक समय और पल्यके असंख्यातवेभाग प्रमाण है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर है। अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी भुजगार, अवस्थित. अल्पतर और अवक्तव्य विभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय और अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर है। इसी प्रकार सौधर्मसे लेकर सहस्रार स्वर्ग तकके देवोंमें जानना चाहिए। इतना विशेष है कि उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी स्थिति प्रमाण है । इसी प्रकार भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंमें जानना चाहिए। इतना विशेष है कि उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी स्थिति प्रमाण है। सम्यक्त्वकी अल्पतर विभक्ति नहीं है। आनतसे लेकर नवग्रेवयक तकके देवोंमें बाईस प्रक्रतियोंकी अवस्थित विभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय है। अल्पतर विभक्तिका जघन्य अन्तर अन्तर्महर्त है और उत्कष्ट अन्तर कुछ कम अपनी स्थितिप्रमाण है। सम्यक्त्वकी अल्पतर विभक्तिका अन्तर नहीं है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अवस्थित और अवक्तव्य विभक्तिका तथा अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी भुजगार, अल्पतर, अवस्थित और अवक्तव्य विभक्तिका जघन्य अन्तर ओघके समान है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी स्थितिप्रमाण है। अनुदिशसे लेकर सवार्थसिद्धि तकके देवोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी अवस्थित विभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय है। अल्पतर विभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। सम्यक्त्वकी अल्पतर विभक्तिका अन्तर नहीं है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अवस्थित विभक्तिका अन्तर नहीं हैं । इस प्रकार जानकर अनाहारी पर्यन्त लेजाना चाहिये। .. विशेषार्थ-आदेशसे नारकियों में बाईस प्रकृतियों की भुजगार और अल्पतर विभक्तिका उत्कृष्ट अन्तर उतना ही कहा है जितना नरकमें पहले इन प्रकृतियो' की अवस्थित विभक्तिका
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org