Book Title: Kasaypahudam Part 05
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh

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Page 307
________________ २७८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ ४७७. आदेसण णेरइएसु मिच्छत्त-सोलसक०-णवणोक. भुज० ज एगस०, उक्क० अंतोमु० । अप्पद० जहण्णुक० एगस । अवहि० ज० एगस०, उक्क० तेत्तीसं सागरोवमाणि देसूणाणि । अणंताणु० चउक्क० अवत्तव्व० ओघभंगो। सम्सत्त-सम्मामिच्छत्त० सव्वपदाणमोघं । णवरि सम्मामि० अप्पद० णत्थि । दोण्हं पि अवहि० ज० एगस०, उक्क० तेतीसं सागरो० संपुण्णाणि । एवं पढमपुढवि० । णवरि सगहिदी। विदियादि जाव सतमि त्ति छब्बीसंपयडीणमेवं चेव । णवरि सगहिदी देमूणा । सम्मत्तसम्मामि० अवहि० ज० एगस०, उक्क० सगहिदी संपुण्णा । अवत्त० ओघं । ४७८. तिरिक्व० णेरइयभंगो। णवरि सव्वासि पयडीणमवहिदं ज० एगस०, उक्क० छब्बीसंपयडीणमंतोमुहुत्तेण सादिरेयाणि तिण्णि पलिदोबमाणि । सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं पलिदो० असंखे०भागेण सादिरेयाणि तिण्णि पलिदोवमाणि । पंचिंदियतिरिक्खदुगस्स एवं चेव । णवरि सम्मत्त-सम्मामि० अवहि० ज० एगसमओ, उक्क० तिण्णि पलिदोवमाणि पुव्वकोडिपुधत्तेण सादिरेयाणि । पंचिंदियतिरिक्खजोणिणीणमेवं चेव । णवरि सम्म० अप्पदर० णत्थि । पंचिंदियतिरिक्खअपज्ज. छब्बीसंपयडीणं भुज०-श्रवट्टि० सम्मत्त०-सम्मामि० अवहि० ज० एगस०, उक्क० अंतोमु० । सम्पत्त ४७७. आदेशसे नारकियोंमें मिथ्यात्व, सालह कषाय और नव नोकषायोंकी भुजगार विभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । अल्पतर विभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अवस्थित विभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछकम तेतीस सागर है । अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अवक्तब्य विभक्तिका भङ्ग ओघके समान है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी सब विभक्तियोंका भङ्ग ओघकी तरह है। इतना विशेष है कि सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतर विभक्ति नहीं होती। दोनों ही प्रकृतियोंकी अवस्थित विभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल सम्पूर्ण तेतीस सागर है । इसी प्रकार पहली पृथिवीमें जानना चाहिए । इतना विशेष है कि उत्कृष्ट काल पहले नरककी स्थिति प्रमाण है। दूसरीसे लेकर सातवीं पृथिवी तकके नारकियोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी विभक्तियोंका काल इसी प्रकार जानना चाहिए । इतना विशेष है कि उत्कृष्ट काल कुछकम अपनी अपनी स्थिति प्रमाण है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अवस्थित विभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अपनी सम्पूर्ण स्थिति प्रमाण है। अवक्तव्य विभक्तिका काल ओघकी तरह है। ४७८ सामान्य तिर्यञ्चोंमें नारकियोंके समान भङ्ग है। इतना विशेष है कि सब प्रकृतियोंकी अवस्थित विभक्तिका जघन्य काल एक समय है और छब्बीस प्रकृतियोंकी अवस्थित विभक्तिका अन्तर्मुहूर्त अधिक तीन पल्य है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अवस्थित विभक्तिका काल पल्यके असंख्यातवें भाग अधिक तीन पल्य है। पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च और पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च पर्याप्तके भी ऐसे ही जानना चाहिए । इतना विशेष है कि सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व की अवस्थित विभक्ति का जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पूर्वकोटि पृथक्त्व अधिक तीन पल्य है। पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिनियोंमें भी ऐसे ही जानना चाहिए । इतना विशेष है कि सम्यक्त्व प्रकृतिकी अल्पतर विभक्ति नहीं है । पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्तकोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी भुजगार और अवस्थित विभक्तिका तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अवस्थितविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वको Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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