Book Title: Kasaypahudam Part 05
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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गा० २२] अणुभागविहत्तीए भुजगारसामित्तं
२७५ $ ४७४. सामित्ताणुगमेण दुविहो णिद्दे सो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छत्त-बारसक०-णवणोक. भुज० कस्स ? अण्णदरस्स मिच्छाइ हिस्स । अप्पदर०-अवहि० कस्स ? अण्णदर० सम्मादिहिस्स मिच्छाइहिस्स वा । सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं अप्पदर०-अवत्तव्व० कस्स ? सम्माइहिस्स। अवहिद० अण्णद० सम्मादिहिस्स मिच्छाइहिस्स वा । अणंताणु० चउक्क० मिच्छत्तभंगो । णवरि अवत्तव्व० कस्स ? मिच्छादिहिस्स।
$ ४७५. आदेसेण णेरइएमु सत्तावीसंपयडीणमोघभंगो । सम्मामि० अवहि०अवत्त व्व० ओघभंगो। एवं पढमपुढवि०-तिरिक्खतिय--देवोघं सोहम्मादि जाव सहस्सारे त्ति । विदियादि जाव सत्तमि त्ति एवं चेव । णवरि सम्मत्तस्स सम्मामिच्छत्तभंगो। एवं पंचिंदियतिरिक्खजोणिणी--भवण.--वाण०--जोदिसिए ति । पंचिंदियतिरिक्खअपज्ज०--मणुसअपज्ज० छब्बीसंपयडीणं भुज०-अप्पदर०-अवहि० सम्मत्तसम्मामिच्छत्ताणमवहि० कस्स ? अण्णद० मिच्छादिहिस्स । मणुसतियस्स ओघभंगो । आणदादि जाव णवगेवज्जा ति मिच्छत्त-बारसक०-णवणोक० अप्पद०-अवहि० ओघं । सम्मत्त-सम्मामिच्छत्त० देवोघं । अणंताणु०चउक्क० भुज०-अवत्तव्व. कस्स ? मिच्छाविभक्ति नहीं होती और अनुदिश से लेकर सर्वार्थसिद्धि तक तो केवल दो ही विभक्तियाँ होती हैं अल्पतर और अवस्थित।
६४७४. स्वामित्वानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मिथ्यात्व, बारह कषाय और नव नोकषायोंकी भुजकारविभक्ति किसके होती है ? किसी एक मिथ्यादृष्टि जीवके होती है। अल्पतर और अवस्थित विभक्ति किसके होती है ? किसी भी सम्यग्दृष्टि अथवा मिथ्यादृष्टि जीवके होती है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतर और अवक्तव्यविभक्ति किसके होती है ? सम्यग्दृष्टि जीवके होती है। अवस्थितविभक्ति किसी भी सम्यग्दृष्टि अथवा मिथ्यादृष्टि जीवके होती है। अनन्तानुबन्धीचतुष्कका भङ्ग मिथ्यात्वकी तरह है। इतना विशेष है कि अवक्तव्यविभक्ति किसके होती है ? मिध्यादृष्टिके होती है।
६४७५. आदेशसे नारकियोंमें सत्ताईस प्रकृतियोंका ओघ के समान है। सम्यग्मिथ्यात्वकी अवस्थित और अवक्तव्यविभक्तिका भङ्ग अोधके समान है। इसी प्रकार पहली पृथिवी, सामान्य तिर्यञ्च, पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च, पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च पर्याप्त, सामान्य देव और सौधर्म स्वर्गसे लेकर सहस्रार स्वर्गतकके देवोंमें जानना चाहिए। दूसरीसे लेकर सातवीं पृथिवी तकके नारकियोंमें इसी प्रकार जानना चाहिए। इतना विशेष है कि सम्यक्त्व प्रकृतिका भङ्ग सम्यग्मिथ्यात्वके समान है। इसी प्रकार पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिनी, भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंमें जानना चाहिए। पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी भजगार, अल्पतर और अवस्थित तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अवस्थितविभक्ति किसके होती है ? किसी भी मिथ्यादृष्टि जीवके होती है। तीन प्रकारके मनुष्योंमें ओघके समान भंग है। आनत स्वर्गसे लेकर नवग्रेवेयक तकके देवों में मिथ्यात्व, बारह कषाय और नव नोकषायों की अल्पतर और अवस्थितविभक्तिका भङ्ग ओघके समान है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व का भंग सामान्य देवोंकी तरह है। अनन्तानुबन्धी
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