Book Title: Kasaypahudam Part 05
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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गा०२२ अणुभागविहत्तीए सण्णा
१३९ १६६. लदा-दारु--अहि--सेलसण्णाओ माणाणुभागफहयाणं लयाओ, कधं मिच्छत्तम्मि पयट्टति ? ण, माणम्मि अवहिदचदुण्हं सण्णाणमणुभागाविभागपलिच्छेदेहि समाणत्तं पेक्विदृण पयडि विरुद्धमिच्छत्तादिफद्दएसु वि पबुत्तीए विरोहाभावादो।
8 उक्कस्सयमणुभागसंतकम्मं सब्वघादिचदुट्ठाणियं ।।
. २००. उक्कस्सणिद्द सो जहण्णपडिसेहफलो । अणुभागसतकम्मणिद्दे सो डिठिपदेसपडिसेहफलो । सव्वघादिणि सो देसघादिपडिसेहफलो। चदुहाणियणिद्दे सो तिहाणादिपडिसेहफलो। मिच्छत्तस्से त्ति अइक्कंतसुत्तादो अणुवट्टदे। कुदो सव्वघादित्तं ? सम्मत्तासेसावयवविणासणेण । अमुत्तस्स सम्मत्तपज्जायस्स कथं सावयवत्तं ? ण, सायारसावयवजीवदव्वं सव्वप्पणा पडिग्गहिय अवडिदस्स णिरवयवणिरायारत्तविरोहादो। लदासमाणफद्दएहि विणा कधं मिच्छत्ताणुभागस्स चदुहाणियत्तं ? ण, पुव्वं व दारुरूप स्पर्धकके लिये भी व्यवहृत हो सकती है। अथवा लता और दारुके समुदायमें व्यवहृत होनेवाली द्विस्थानिक संज्ञाका व्यवहार उसके एक अंश दारुमें भी हो सकता है।
१९९. शंका-लता, दारु, अस्थि और शैल संज्ञाए मानकषायके अनुभागस्पर्धकोंमें की गई हैं, ऐसी दशामें वे संज्ञाएँ मिथ्यात्व में कैसे प्रत्त हो सकती हैं ?
समाधान नहीं, क्योंकि मानकषाय और मिथ्यात्वके अनुभागके अविभागीप्रतिच्छेदो' की परस्पर में समानता देखकर मानकषायमें हाने वाली चारो संज्ञाओं की मानकषायसे विरुद्ध प्रकृतिवाले मिथ्यात्वादिके स्पर्ध का में भी प्रत्ति होने में कोई विरोध नहीं है।
विशेषार्थ--यद्यपि कठोरता यह मानकषायका गुण है, अन्य प्रकृतियों में यह धर्म नहीं पाया जाता, तथापि मानकषायक समान शक्तिवाले अन्य प्रकृतियों के स्पर्धक होते हैं, यह देखकर यहाँ मिथ्यात्व आदि कर्मों के स्पर्धकों की लतासमान आदि संज्ञाएँ रखी हैं, यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
* मिथ्यात्वका उत्कृष्ट अनुभाग सत्कर्म सर्वघाती और चतुःस्थानिक है।
२००. जघन्यका प्रतिषेध करनेके लिये उत्कृष्ट पदका निर्देश किया है। स्थिति और प्रदेशका प्रतिषेध करनेके लिये अनुभागसत्कर्म पदका निर्देश किया है। देशघातीका प्रतिषेध करनेके लिये सर्ववाती पदका निर्देश किया है। त्रिस्थानिक आदिका प्रतिषेध करनेके लिये चतु:स्थानिक पदका निर्देश किया है। मिथ्यात्व इस पदकी पिछले सूत्र से अनुत्ति होती है।
शंका-यह सर्वघाती क्यों है ? समाधान-क्योंकि यह सम्यक्त्वके सब अवयवोंका विनाश करता है, अतः सर्वघाती है शंका-सम्यक्त्व पर्याय अमूर्त है, अतः उसके अवयव कैसे हो सकते हैं ?
समाधान-ऐसी शंका करना ठीक नहीं है, क्योंकि जो सम्यक्त्व साकार और सावयव जीव द्रव्यको सर्वात्मना पकड़ कर बैठा हुआ है उसके निरवयव और निराकार होनेमें विरोध है। अर्थात् जीव द्रव्य साकार और सावयव है, अत: उससे अभिन्न या तत्स्वरूप सम्यक्त्व सर्वथा निरवयव और निराकार नहीं हो सकता।
शंका-जब मिथ्यात्व स्पर्धक लतासमान नहीं होते तो उसका अनुभाग चतुःस्थानिक
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