Book Title: Kasaypahudam Part 05
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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गा० २२]
अणुभागबंधाहियारे कालो . १८५ विसंजोएंतस्स चरिमे अणुभागकंडए वट्टमाणस्स । एवं जाणिदूण णेदव्वं जाव अणाहारि त्ति ।
* कालाणुगमेण ।
$ २७७. सामित्तं भणिय संपहि एगजीवपडिबद्धं कालपरूवणं कस्सामो ति पइज्जासुत्तमेदं ।
& मिच्छत्तस्स उक्कस्साणुभागसंतकम्मित्रो केवचिरं कालादो होदि ?
$ २७८. सुगम । बन्धीचतुष्कके जघन्य अनुभागके स्वामित्वके विषयमें इतना विशेष है कि अनन्तानुबन्धीचतुष्क का विसंयोजन करनेवाला जीव जब अन्तिम अनुभागकाण्डकमें वर्तमान होता है तब उसके जघन्य अनुभागसत्कर्म होता है। इस प्रकार जानकर अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिये ।
विशेषार्थ ओघसे मोहनीयकी उत्तर प्रकृतियोंके अनुभागसत्कर्मका स्वामित्व जैसे पहले बतला आये हैं वैसे ही जानना चाहिये। और आदेशसे भी प्रायः उसी प्रकार है किन्तु हतसमुत्पत्तिक कर्मवाला असंज्ञी पञ्चन्द्रिय पहले नरकके सिवा अन्य नरकोंमें जन्म नहीं लेता, अतः दूसरे आदि नरकोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और नव नोकषायोंके जघन्य अनुभागसत्कर्मका स्वामी अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी विसंयोजना करनेवाला सम्यग्दृष्टि होता है। सामान्य तिर्यञ्चोंमें सूक्ष्म एकेन्द्रिय हतसमुत्पत्तिक कर्मवाला स्वामी होता है। शेष तिर्यञ्चोंमें मरकर जन्म लेनेवाला वही हतसमुत्पत्तिक कर्मवाला सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीव स्वामी होता है। सामान्यसे चारों ही गतियों
नन्तानुबन्धीचतुष्कके जघन्य अनुभागसत्कर्मका स्वामी अनन्तानबन्धीका विसंयोजन करनेवाला जब पुनः अनन्तानुबन्धीसे संयुक्त होता है तब उसके प्रथम समयमें होता है। किन्तु तिर्यञ्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तमें अनन्तानुबन्धीका विसंयोजन नहीं होता, अत: जो हतसमुत्पत्तिक कर्मवाला सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीव मरकर उनमें जन्म लेता है वही स्वामी होता है । तथा देवगतिमें अनुदिशादिक विमानों में अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना करनेवाला जब अनन्तानुबन्धी के अन्तिम अनुभागकाण्डककी विसंयोजना करता है तब उसके अनन्तानुबन्धीका जघन्य अनुभागसत्कर्म होता है, क्योंकि वहाँ अनन्तानुबन्धीका पुन: संयोजन संभव नहीं है । सम्यग्मिथ्यात्व का जघन्य अनुभागसत्कर्म केवल मनुष्यगतिमें ही होता है, क्योंकि सम्यग्मिथ्यात्वका क्षपण मनुष्य ही करता है । सम्यक्त्व प्रकृतिका जघन्य अनुभागसत्कर्म पहले नरकमें, सामान्य तियञ्च, पञ्चन्द्रियतिर्यञ्च और पञ्चन्द्रिय पर्याप्त तिर्यञ्चोंमें, सामान्य मनुष्य, मनुष्य पयोप्त और मनुष्यिनियोंमें तथा भवनत्रिकको छोड़कर शेष देवोंमें होता है, क्योंकि इनमें या तो कृतकृत्यवेदकसम्यग्दृष्टी उत्पन्न हो सकता है। या इनमेंसे किन्हींमें होता है। वैमानिक देवोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और नव नोकषायो के जघन्य अनभागसत्कर्मके स्वामित्वके विषयमें जो विशेषता वह मूलमे बतलाई ही है। __ * कालका प्ररूपण करते हैं।
२७७. स्वामित्वको कहकर अब एक जीवकी अपेक्षा कालका कथन करते हैं। यह प्रतिज्ञा सूत्र है अर्थात् इस सूत्रमें कालका कथन करनेकी प्रतिज्ञा की गई है।
* मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका कितना काल है ? $ २७८. यह सूत्र सुगम है। २४
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