Book Title: Kasaypahudam Part 05
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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गाठ २२ ]
भागवितीए कालो
१९९
उक्क० सगहिदी । णवरि मणुसपज्ज० इत्थि० हस्सभंगो | मणुसिणी० पुरिस० णवुंस ० हस्तभंगो |
$ ३०२. भवण० - वाण० पढमपुढविभंगो । णवरि सगहिदी । सम्मत० जहणणं णत्थि । जोदिसि० विदिय पुढविभंगो । सोहम्मादि जाव णवगेवज्जा त्तिमिच्छत्त बारसक० णवणोक० जहण्णाजहण्णाणुभाग० जहण्णुकस्सहिदी । सम्मत्त ०-३ - अनंताणु० चक्क० जहण्णाणु० जहण्णुक्क० एस० । अज० ज० एस ०, उक्क० सगहिदी । सम्मामि० उक्कस्तभंगो | अणुद्दिसादि जाव सव्वहसिद्धि त्ति मिच्छत्त०-- बारसक ०० -- णवणोक ० जहण्णाजहण्णाणु० जहएणुक० द्विदी । सम्मत्त० जहण्णाणु० जहरणुक० एस० । अज० ज० एगस०, उक्क० सगहिदी । अनंताणु० चउक० जहण्णाणु० ज० उक्क० तोमु० । अज० ज० अंतोमु०, उक्क० सगहिदी । एवं जाणिदृण णेदव्वं जाव अणाहारिति ।
है। अजघन्य अनुभागसत्कर्मका सामान्य मनुष्यों में क्षुद्रभवग्रहणप्रमाण और मनुष्यपर्याप्त तथा मनुष्यनियोंमें अन्तर्मुहूर्त है । उत्कृष्ट काल अपनी स्थितिप्रमाण है । इतना विशेष है कि मनुष्यपयाप्तकों में स्त्रीवेद के अनुभागका काल हास्यकी तरह जानना चाहिए और मनुष्यिनियों में पुरुषवेद और नपुंसक वेद के अनुभागका काल हास्यकी तरह जानना चाहिए ।
३०२. भवनवासी और व्यन्तरों में पहले नरकके समान भङ्ग होता है । इतना विशेष है कि उनमें नरककी स्थितिके स्थान में अपनी स्थिति लेनी चाहिए। तथा सम्यक्त्वका जघन्य अनुभागसत्कर्म नहीं होता । ज्योतिषी देवो में दूसरी पृथिवीके समान भङ्ग होता है। सौधर्मसे नवग्रैवेयक तक के देवो में मिथ्यात्व, बारह कषाय और नव नोकषायों के जघन्य और अजघन्य अनुभागसत्कर्मका काल अपनी जघन्य और उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है । सम्यक्त्व और अनन्तानुबन्धचतुष्कके जघन्य अनुभागसत्कर्मका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । जघन्य अनुभागसत्कर्मका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अपनी स्थिति प्रमाण है । सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्टके समान भङ्ग है । अनु दशसे लेकर सर्वार्थसिद्धितक के देवों में मिध्यात्व, बारह कषाय और नव नोकषायोंके जघन्य और अजघन्य अनुभाग सत्कर्मका अपनी अपनी जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण है । सम्यक्त्वके जघन्य अनुभागसत्कर्मका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अजघन्य अनुभागसत्कर्मका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अपनी स्थितिप्रमाण है । अनन्तानुबन्धीचतुष्कके जघन्य अनुभागसत्कर्मका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । अजघन्य अनुभागसत्कर्मका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल अपनी स्थितिप्रमाण है । इसप्रकार जानकर अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिये ।
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विशेषार्थ - आदेश से नारकियों में मिथ्यात्व, बारह कषाय और नव नोकषायोंका जघन्य अनुभाग सत्कर्म हतसमुत्पत्तिक कर्मवाला जो असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय जन्म लेता है उसके होता है. अतः उसका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त पूर्ववत् जानना । अन्तर्मुहूर्त तक जघन्य अनुभाग रहकर पुनः अधिक अनुभागबन्ध करने पर अजघन्य अनुभाग होता है जो कि के अन्त तक रहता है, अतः अजघन्य अनुभागका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त कम दस हजार वर्ष होता है और उत्कृष्ट काल नरककी पूरी आयु प्रमाण होता है। सम्यक्त्व प्रकृतिका जघन्य अनुभाग दर्शनमोहके क्षपकके अन्तिम समय में होता है अतः उसका जघन्य और
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