Book Title: Kasaypahudam Part 05
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[अणुभागविहत्ती ४
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उत्कृष्ट काल एक समय है तथा अजघन्य अनुभागका काल उत्कृष्ट अनुभागके कालकी तरह जानना। दूसरे नरकसे लेकर सातवें नरक पर्यन्त हतसमुत्पत्तिक कर्मवाला असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय तो उत्पन्न हो नहीं सकता अत: अनन्तानुबन्धी की विसंयोजना करनेवाले सम्यग्दृष्टिके बाईस प्रकृतियों का जघन्य अनुभाग होता है। अत: उसका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल कुछ कम अपनी स्थितिप्रमाण है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिका केवल अजघन्य अनुभाग ही होता है। उसका काल उत्कृष्ट अनुभागके काल की तरह जानना। अनन्तानुबन्धी कषायका जघ य अनुभाग विसंयोजन करके पुन: उसका बंध करनेवालेके प्रथम समयम होता है, अत: उसका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अनन्तानुबंधी ही विसंयोजनावाला आयुके दो समय शेष रहने पर सासादनगुणस्थानको प्राप्त हो गया वह संयुक्त होनेके प्रथम समयमें जघन्य और दूसरे समयमें अजघन्य अनुभाग करके मरणको प्राप्त हो गया अतः अजघन्यका जघन्य काल एक समय होता है परन्तु सातवीं पृथिवीसे सासादनसे निर्गमन नहीं होता और मिथ्यात्वका जघन्य काल अन्तर्मुहूत है अत: सातवीं पृथ्विीमें अनन्तनुबन्धीके अजघन्य अनुभागका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त कहा है । सामान्य तिर्यञ्चोंमें सभी प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य अनुभागका काल पूर्ववत् विचार लेना चाहिये। पञ्चेन्द्रियतिर्यचत्रिकमें नारकियोंके समान काल होता है किन्तु उनकी जघन्य आयु अन्तर्मुहूर्त होनेसे बाईस प्रकृतियोंके अजघन्य अनुभागका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है । तिर्यञ्च योनिनियोंमें दर्शन. मोहका क्षपण नहीं होता और न कृतकृत्यवेदक उनमें उत्पन्न ही होता है, अतः सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य अनुभाग उनमें नहीं होता। हतसमुत्पत्तिक कर्मवाला एकेन्द्रिय जीव पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्त या मनुष्य अपर्याप्तमें जन्म लेकर यदि दूसरे समयमें अनुभागको बढ़ा लेता है तो जघ य अनुभागका जघन्य काल एक समय होता है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त होता है। अजघन्य अनुभागका भी जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है जितनी कि अपर्याप्तक की जघन्य या उत्कृष्ट स्थिति होती है। मनुष्यत्रिकमें अजघन्यानुभागका जो उत्कृष्ट काल कहा है सो सामान्य मनुष्य, मनुष्यपर्याप्त और मनुष्यिनी मार्गणाका एक जीवकी अपेक्षा जितना काल होता है उतना ही कहा है, उतने काल तक मनुष्यके बराबर अजघन्य अनुभाग रह सकता है । जो सम्यग्मिथ्यात्वकी क्षपणा कर रहा है उस मनुष्यके अन्तिम अनुभागकाण्डक अनुभागकाण्डक का काल अन्तर्मुहूर्त होता है अतः उसका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । अजघन्य अनभागका जघन्य काल एक समय उद्वेलनाकी अपेक्षा होता है। चारों संज्वलन और तीनों वेदों का जघन्य अनुभाग क्षपकश्रेणिमें अपने अपने क्षपण कालके अन्तिम समयमें होता है अतः उसका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। छ नोकषायोंके जघन्य अनभागका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है सो सम्यग्मिथ्यात्वके जघन्य अनुभागके कालकी तरह घटा लेना चाहिये। अजघन्य अनुभागका जघन्य और उत्कृष्ट काल अपनो जघन्य और उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण होता है। हतसमुत्पत्तिक कर्मवाला असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय भवनवासी और व्यन्तरोंमें ही जन्म लेता है, ज्योतिष्कोंमें जन्म नहीं लेता। अत: भवनवासी और व्यन्तरोंमें प्रथम नरकके समान काल कहा है और ज्योतिष्क देवोंमें दूसरे नरकके समान काल कहा है। सौधर्मसे लेकर सर्वार्थसिद्धि पर्यन्त बाईस प्रकृतियोंके दोनों अनुभागोंका जघन्य काल जघन्य स्थितिप्रमाण और उत्कृष्ट काल उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण होता है जो कि पहले बतलाये गये स्वामित्वसे स्पष्ट है। सम्यक्त्वप्रकृतिके दोनों अनुभागोंका काल पूर्ववत् जानना । सौधर्मसे लेकर नवप्रैबेयक पर्यन्त अनन्तानुबन्धीका जघन्य अनुभाग अनन्तानुबन्धीका विसंयोजन करके पुनः उससे संयुक्त होनेवालेके प्रथम समयमें होता है, अत: उसका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है। किन्तु अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि पर्यन्त अनन्तान बन्धीका विसंयोजन करनेवाला जब उसके अन्तिम अनुभाग
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