Book Title: Kasaypahudam Part 05
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh

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Page 241
________________ २१२ जयधक्लासहिदे कषायपाहुडे [ अणुभागविहन्ती ४ अज० ज० अंतोमु०, उक्क० तिरिण पलिदोवमाणि देणाणि । पंचिंदियतिरिक्खतिय० मिच्छत्त- बारसक० णवणोक० जहण्णाजहण्णाणु० णत्थि अंतरं । सम्मत्त० जहण्णाणु णत्थि अंतरं । [सम्मत्त सम्मामि ० ] अज० ज० एगस०, उक्क० सगहिदी | अताणु [० चउक० जहण्णाणु० ज० अंतोमु०, उक्क० सगहिदी० । अज० ज० तोमुहुत्तं, उक्क० तिरिण पलिदो० देसूणाणि । णवरि जोणिणीसु सम्मत्त० जहण्णाणु० णत्थि । पंचिंदियतिरिक्खापज्ज० - मणुसापज्ज० मिच्छत - सोलसक० णवणोक० ज० अज० णत्थि अंतरं । मणुसतिय० पंचिंदियतिरिक्खतियभंगो | णवरि सम्मामि० सम्मत्तभंगो | १ ३२४. देवगदीए देवेसु मिच्छत - बारसक० णवणोक० जहण्णाजहण्णाणु० णत्थि अंतरं । सम्मत्त० जहण्णा० रात्थि अंतरं । सम्मत्त सम्मा मि० अ० ज० एगस०, उक्क० एक्कत्तीस सागरो० देसूणाणि । अनंताणु० चउक्क० जहण्णाजहण्णा पु० ज० अंतोमु०, उक्क० एक्कत्तीसं सागरो० देभ्रूणाणि । भवण० वाण ० णेरइयभंगो। णवरि सगहिदी । सम्मत्तस्स जहण्णं णत्थि । जोदिसि० विदिय पुढविभंगो। णवरि सगहिदी। सोहम्मादि जाव उवरिंमंगेवज्जा त्ति मिच्छत्त-- बारसक० णवणोक० जहण्णाजहण्णाणु० 1 उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य है । पञ्च ेन्द्रिय तिर्यञ्च पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च पर्याप्त और पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च योनिनी जीवोंमें मिध्यात्व, बारह कषाय और नव नोकषायों के जघन्य और अजघन्य अनुभागसत्कर्मका अन्तरकाल नहीं है । सम्यक्त्वके जघन्य अनुभागसत्कर्मका अन्तरकाल नहीं है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व के अजघन्य अनुभागसत्कर्मका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अपनी स्थितिप्रमाण है । अनन्तानुबन्धी चतुष्कके जघन्य अनुभाग सत्कर्म का जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर अपनी स्थितिप्रमाण है । जघन्य अनुभागसत्कर्मका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य है । इतना विशेष है कि पञ्चेन्द्रियतिर्यभ्व योनिनियों में सम्यक्त्वका जघन्य अनुभागसत्कर्म नहीं होता । पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकों में मिध्यात्व, सोलह कषाय और नव नोकषायों के जघन्य और अजघन्य अनुभागसत्कर्मका अन्तरकाल नहीं है। मनुष्य के शेष तीन भेदों में पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चत्रिकके समान भंग हैं । इतना विशेष है कि सम्यग्मिथ्यात्वका भंग सम्यक्त्वके समान है । $ ३२४. देवगतिमें सामान्य देवोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय, और नव नोकषायोंके जघन्य और अजघन्य अनुभागसत्कर्मका अन्तरकाल नहीं है । सम्यक्त्वके जघन्य अनुभाग सत्कर्मका अन्तरकाल नहीं है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व के अजघन्य अनुभाग सत्कर्मका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर है। अनन्तानुबन्धी चतुष्क जघन्य और अजघन्य अनुभाग सत्कर्मका जधन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर है । भवनवासी और व्यन्तरोंमें नारकियोंके समान भंग है । इतना विशेष है की उत्कृष्ट अन्तर अपनी स्थितिप्रमाण है । वहाँ सम्यक्त्वका जघन्य अनुभागसत्कर्म नहीं होता । ज्योतिषी देवोंमें दूसरी पृथिवीकी तरह भंग है। इतना विशेष है कि उत्कृष्ट अन्तर ज्योतिषी देवोंकी स्थितिप्रमाण हैं । सौधर्मसे लेकर उपरिमयैत्रेयक तकके देवोंमें मिध्यात्व, बारह कषाय और नव नोकषायोंके जघन्य और अजघन्य अनुभागसत्कमका अन्तरकाल नहीं हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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