Book Title: Kasaypahudam Part 05
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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गा० २२ ]
अणुभागविहत्तीए भंगविचश्रो
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९ ३३५. कुदो ? बहुएहि मिच्छत्ताणुकस्साणुभागविहत्तिएहिं सह एकस्स मिच्छत्तुकस्साणुभागविहत्तियजीवस्सुवलंभादो ।
* सिया विहत्तिया च विहत्तिया च ।
९ ३३६. मिच्छत्तस्स अणुक्कस्साणुभागविहत्तिएहि सह बहुश्राणमुक्कस्साणुभागविहत्तियाणं संभवुवलं भादो ।
* एवं सेसाणं कम्माणं सम्मत्तसम्मामिच्छुत्तवज्जाणं ।
९ ३३७, जहा मिच्छत्तस्स भंगाणं मीमांसा कदा तहा सम्मत्त सम्मामिच्छत्तवज्जाणं सेकम्माणं पि कायव्वा, विसेसाभावादो ।
* सम्मत्तसम्मामिच्छत्ताए मुक्कस्स अणुभागरस सिया सब्वे जीवा विहत्तिया ।
$ ३३८. सम्मत्त - सम्मामिच्छत्ताणमुक्कस्साणुभागसंतकम्मियाणं व अविहत्तियाणं पि सव्वकालसंभवो अत्थि, छब्बीससंतकम्मियाणं जीवाणं सव्वकालमाणंतियभावेण दाणवलं भादो त ?ण, अकम्मे ववहारो णत्थि त्ति पुव्वं परुविदत्तादो । मिच्छता
९ ३३५. क्योंकि मिध्यात्व की अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले बहुत जीवो के साथ मिथ्यात्व की उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाला एक जीव पाया जाता है ।
* कदाचित् बहुत जीव अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले और बहुत जीव अनुत्कृष्ट अनुभागअविभक्तिवाले हैं।
३३६. क्योकि मिध्यात्वकी अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवालो के साथ बहुतसे उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले जीव पाये जाते हैं ।
* इसी प्रकार सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वको छोड़कर शेष कर्मोंका भी जान लेना चाहिये ।
९ ३३७. जैसे मिथ्यात्व के भंगो की मीमांसा की है वैसे ही सम्यक्त्व और सम्यमिध्यात्वको छोड़कर शेष कर्मों की कर लेनी चाहिये, क्योंकि उससे इसमें कुछ विशेष नहीं है । * सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व की अपेक्षा कदाचित् सब जीव उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले होते हैं ।
§ ३३८. शंका-सम्यक्त्व और सम्यग्मिध्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागकी सत्तावाले जीवो के समान उत्कृष्ट अनुभाग की अविभक्तिवाले जीव भी सदा संभव हैं, क्योंकि सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व के सिवाय मोहनीयकी शेत्र छब्बीस प्रकृतियोंकी सतावाले जीव सदा अनन्तरूपसे अवस्थित पाये जाते हैं। अत: उत्कृष्ट अनुभागसे सहित जीवोंके समान उससे रहित जीवोंको भी कहना चाहिये ।
समाधान- नहीं, क्योंकि पहले कह आये हैं कि जिन जीवोंके मोहनीयकी प्रकृतियां नहीं
१. श्रा० प्रतौ श्रणुणागविहत्तिएहि इति पाठः । २ ता० प्रतौ संतकम्मियाणं पि श्रविहन्तियाणं पि सव्वकाल संभव श्रत्थि सव्वकालजीवाणं इति पाठः ।
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