Book Title: Kasaypahudam Part 05
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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गा० २२ ] अणुभागविहत्तीए अंतरं
२०५ अंतोमु०, उक्क० अहारस सागरो० सादिरेयाणि । अणुक० जहण्णुक्क० अंतोमुहुत्तं । णवरि अणंताणु०चउक्क० अणुक्क० ज० अंतोमु०, उक्क० एकत्तीसं सागरो० देसूणाणि । सम्मत्त--सम्मामि० उक्कस्साण. ज. एगस०, उक्क० एकत्तीसं सागरो० देसूणाणि । णवरि सम्मामि० अणुक्कस्सं णस्थि । एवं भवणादि जाव सहस्सारो ति । णवरि सगहिदी देसूणा। भवण-वाण-जोइसि० सम्मत्त० अणुक्क० णत्थि । आणदादि जाव णवगेवज्जा त्ति मिच्छत्त-सोलसक०-णवणोक० उक्कस्साणकस्साणुभाग० णत्थि अंतरं । णवरि अणंताणु० चउक्क० अणुक्क० ज० अंतोमु०, उक्क० सगहिदी देसूणा । सम्मत्त०सम्मामि० उक्कस्साणु० ज० एगसमो, उक्क. सगहिदी देसूणा । अणुक्क० णत्थि अंतरं । णवरि सम्मामि० अणुक्क० गत्थि। अधवा सम्मामिच्छत्तअणुक्कस्साभावे सव्वत्थ उक्कस्सं पि णत्थि त्ति वत्तव्वं, ताणमण्णोण्णसव्वपेक्खत्तादो। एसो उच्चारणाइरियस्साहिप्पायो सव्वत्थ जोजेयव्वो। अणुदिसादि जाव सव्वदृसिद्धि त्ति अहावीसं पयडीणं उक्कस्साणुक्कस्साणुभागं णत्थि अंतरं । एवं जाणिदूण णेदव्वं जाव अणाहारि त्ति । का जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ अधिक अठारह सागर है । अनुत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहर्त है। इतना विशेष है कि अनन्तानुबन्धीचतुष्कके अनुत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका जघन्य अन्तरे अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर है। इतना विशेष है कि सामान्य देवोंमें सम्यग्मिथ्यात्वका अनुत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म नहीं होता। इसी प्रकार भवनवासीसे लेकर सहस्रार कल्प तकके देवोंमें जानना चाहिए। इतना विशेष है कि इनमें उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी स्थिति प्रमाण है। भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंमें सम्यक्त्वका अनुत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म नहीं होता । नतसे लेकर नव ग्रैवेयक तकके देवोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नव नोकषायोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका अन्तरकाल नहीं है। इतना विशेष है कि अनन्तानुबन्धीचतुष्कके अनुत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी स्थिति प्रमाण है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी स्थिति प्रमाण है। अनुत्कृष्ट अनुभागका अन्तर नहीं है। तथा सम्यग्मिथ्यात्वका अनत्कृष्ट यहाँ नहीं होता। अथवा सम्यग्मिथ्यात्वके अनुत्कृष्टके अभावमें सर्वत्र उसका उत्कृष्ट भी नहीं होता ऐसा कहना चहिये, क्योंकि उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट दोनों परस्पर सापेक्ष हैं, जहाँ एक नहीं होता वहाँ दूसरा भी नहीं होता। उच्चारणाचार्यका यह अभिप्राय सर्वत्र लगा लेना चाहिये । अन दिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि पर्यन्त अट्ठाईस प्रकृतियों के उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मको लेकर अन्तरकाल नहीं है। इस प्रकार जानकर अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिये।
विशेषार्थ-आदेशसे नारकियोंमें छब्बीस प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है, क्योंकि उत्कृष्ट अनुभागवाला कोई नारकी उत्कृष्ट अनुभागका घात करके अनुत्कृष्ट अनुभागवाला हुआ और अन्तमें उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करके पुनः उत्कृष्ट अनुभागवाला हो गया तो उत्कृष्ट अन्तर पाया जाता है। अनुत्कृष्ट अनुभागका जघन्य और
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