Book Title: Kasaypahudam Part 05
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ * जहण्णाणुभागसंतकम्मियंतरं केवचिरं कालादो होदि ?
३१३. सुगमं । * मिच्छत्त-अहकसाय-अणताणुवंधीणच मोत्तण सेसाणं णत्थि अंतरं।
३१४. कुदो ? सम्मत्त-सम्मामिच्छत्त-चदुसंजलण-णवणोकसायाणं खवणाए जहण्णाणुभागसंतकम्मस्स णिम्मूलं विणहस्स पुणरुप्पत्रिवज्जियस्स अंतरावणे उवायाउत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त तो स्पष्ट ही है । विशेष यह है कि अनन्तानुबन्धीके अनुत्कृष्ट अनुभागका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है, क्योंकि अनुत्कृष्ट अनुभागवाला जीव अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना करके वेदकसम्यक्त्वी हुआ, अन्तमें सम्यक्त्वसे च्युत होकर मिथ्यादृष्टि होकर पुनः अनन्तानुबन्धीका बन्ध करके अनुत्कृष्ट अनुभागवाला हो गया। इसी प्रकार प्रत्येक नरकमें लगा लेना चाहिये। सामान्य तियञ्चोंमें भी इसी प्रकार घटा लेना चाहिये। अनन्तानुबन्धीके अनुत्कृष्ट अनुभागका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य उत्कृष्ट भोगभूमिमं विसंयोजनाकी अपेक्षा नरककी तरह घटा लेना चाहिये । पञ्चेन्द्रिय तिर्यचत्रिकमें छब्बीस प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागका उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटि पृथक्त्व कहा है सो एक जीवकी अपेक्षा इन तीनों मार्गणाओं का जितना काल है उसमें तीन पल्य कम उतना ही अन्तर होता है, क्योंकि भोगभूमिमें उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका अभाव है। इसी प्रकार आगे भी जानना चाहिए। तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागका उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्य है सो इन दोनों प्रकृतियोंकी सत्तावाला कोई जीव पञ्चेन्द्रियतिर्यश्च आदिमें से किसी एकमें जन्म लेकर इनकी उद्वेलना कर दे और इस प्रकार इनसे रहित होकर कुछ कम उक्त काल पर्यन्त पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च आदिमें ही भ्रमण करता रहे । अन्तमें उपशमसम्यक्त्वको उत्पन्न करके पुन: उक्त दोनों प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मवाला हो जाये। इस प्रकार उत्कृष्ट अन्तर आता है। मनुष्य अपर्याप्त और तिर्यश्च अपर्याप्त में अन्तर नहीं होता, क्योंकि इनमें उत्कृष्ट अनुभाग बन्ध नहीं होता। पूर्वभवसे उत्कृष्ट अनुभाग लाया जा सकता है मगर उसका घातकर देनेपर पुनः उसका सत्त्व संभव नहीं है। इसी प्रकार अनुत्कृष्ट अनुभागमें भी समझ लेना चाहिये। देवगतिमें देवोंमें छब्बीस प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका उत्कृष्ट अन्तर कुछ अधिक अठारह सागर है. क्योंकि देवगतिमें उत्कृष्ट अनभागका बन्ध और मत्त्व बारहवें स्वर्ग तक ही पाया जाता है और उसकी उत्कृष्ट स्थिति कुछ अधिक अठारह सागर है. अतः उत्कृष्ट अनभागवाला: जीव बारहवें स्वगमें जन्म लेकर उत्कृष्ट अनभागका घात करके अनत्कृष्ट अनभागवाला हक जब थोड़ी आयु शेष रही तो पुन: उत्कृष्ट अनुभागबन्ध करके उत्कृष्ट अनुभागवाला हो गया। इस तरह उत्कृष्ट अनभागका उत्कृष्ट अन्तर साधिक अठारह सागर होता है। अनन्तानुबन्धीक अनुत्कृष्ट अनुभागका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर नव ग्रेवेयककी अपेक्षासे कहा है, क्योंकि आगे तो सब सम्यग्दृष्टि ही होते हैं अतः वहाँ अन्तर होता ही नहीं है। इसी तरह सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागका भी अन्तर जानना चाहिए ।
* जघन्य अनुभागसत्कर्मका अन्तरकाल कितना है ?
३१३. यह सूत्र सुगम है ।
* मिथ्याव, आठ कषाय और अनन्तानुबन्धीचतुष्कको छोड़कर शेष प्रकृतियों के जघन्य अनुभागसत्कर्मका अन्तरकाल नहीं है।
३१४. क्योंकि सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, चार संज्वलन कषाय और नव नोकषायोंका क्षपण होने पर जघन्य अनुभागसत्कर्म मूलसे ही नष्ट हो जाता है, उसकी पुन: उत्पत्ति नहीं
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