Book Title: Kasaypahudam Part 05
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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गा० २२]
अणुभागविहत्तीए अंतरं भावादो । णिस्संतकम्मियम्मि अंतरमुवलब्भदि त्ति ण पञ्चवहादु जुत्तं, पुव्वुत्तरजहण्णाणुभागाणं विच्चालमंतरं । ण च तमेत्थत्थि, खविदजहण्णाणुभागस्स पुणरुप्पत्तीए अभावादो । खविदाणमणंताणुबंधीणं व पुणरुप्पत्ती एदासिं पयडीणमणुभागस्स किण्ण जायदे ? ण, अणंताणुबंधीणं व संजलणादीणं विसंजोयणाभावेण पुणरुप्पत्तीए विरोहादो । ण खविदाणं पुणरुप्पत्ती, णिव्वुआणं पि पुणो संसारित्तप्पसंगादो । ण च एवं,णिरासवाणं संसारुप्पत्तिविरोहादो। अणंताणुबंधीणं पि खवणा चे ण विसंजोयणा, लक्खणभेदाणुवलंभादो। ण कम्मंतरभावेण कम्माणं परिणामो विसंजोयणा, संछोहणेण खविदासेसकम्माणं पि विसंजोयणप्पसंगादो । ण च एवं, तेसिमणंताणुबंधीणं व पुणरुप्पत्तिप्पसंगादो। ण च अकम्मसरूवेण परिणामो. विसंजोयणा, लोभसंजलणस्स वि विसंजोयणत्तप्पसंगादो त्ति । एत्थ परिहारो वुच्चदे-कम्मतरसरूवेण संकमिय अवहाणं
होती, अतः उसके अन्तरको प्राप्त करानेका कोई उपाय नहीं है। जिन प्रकृतियों की सत्ताका अभाव हो जाता है उनमें भी अत्तर पाया जाता है, ऐसा निश्चय करना युक्त नहीं है, क्योंकि पहलेके जघन्य अनुभाग और बादके जघन्य अनुभागके बीचका जो फरक होता है उसे अन्तर कहते हैं। अर्थात् पहले जघन्य अनुभाग हुआ वह नष्ट हो गया। पुनः कालान्तरमें जघन्य अनुभाग हुआ। इन दोनों के बीच में जघन्य अनुभाग रहित जो काल होता है उसे अन्तरकाल कहते हैं। वह अन्तर यहाँ नहीं है, क्योंकि इन प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागका क्षय हो जाने पर उसकी पुन: उत्पत्ति नहीं होती।
शंका-जैसे अनन्तानुबन्धीका क्षपण हो जाने पर उसकी पुन: उत्पत्ति हो जाती है वैसे इन प्रकृतियोंके अनुभाग की पुनः उत्पत्ति क्यों नहीं होती ?
समाधान-नहीं, क्योंकि अनन्तानुबन्धी कषायों की तरह संज्वलन आदिके विसंयोजनका अभाव होकर उनकी पुन: उत्पत्ति होनेमें विरोध है। यदि कहा जाय कि नष्ट होने पर भी उनकी पुन: उत्पत्ति हो जाय तो क्या हानि है ? किन्तु ऐसा कहना योग्य नहीं है, क्योंकि क्षयको प्राप्त हुई प्रकृतियोंकी पुनः उत्पत्ति नहीं होती, यदि होने लगे तो मुक्त हुए जीवोंको पुन: संसारी होनेका प्रसंग उपस्थित होगा। किन्तु मुक्त जीव पुनः संसारी नहीं होते, क्योंकि जिनके कर्मोंका आश्रव नहीं होता उनके संसार की उत्पत्ति माननेमें विरोध आता है।
शंका-अनन्तानुबन्धी कषायोंकी भी क्षपणा ही होती है, विसंयोजना नहीं होती, क्योंकि क्षपणा और विसंयोजनाके लक्षणोंमें भेद नहीं है। शायद कहा जाय कि कर्माका कर्मान्तर रूपसे जो परिणमन होता है उसे विसंयोजना कहते हैं, किन्तु ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि इस प्रकार तो एक प्रकृतिके प्रदेशोंका अन्य प्रकृतिमें क्षेपण करनेसे नष्ट हुए सभी कर्मों की विसंयोजनाका प्रसंग उपस्थित होगा। किन्तु अन्य प्रकृतियों की विसंयोजना नहीं होती, यदि हो तो अनन्तानुबन्धी की तरह उनकी भी पुनः उत्पत्तिका प्रसंग आयेगा। शायद कहा जाय कि अकर्म रूपसे परिणमन होनेको विसंयोजना कहते हैं सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि विसंयोजनाका ऐसा लक्षण करनेसे संज्वलन लोभको भी विसंयोजनाका प्रसंग उपस्थित होगा।
समाधान-अब परिहार कहते हैं-किसी कर्मका दूसरे कर्मरूपमें संक्रमण करके ठहरे
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