Book Title: Kasaypahudam Part 05
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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जयधवलासहिदे कषायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ मिच्छत्तस्स जहण्णाणुभागसंतकम्मिो केवचिरं कालादो होदि ? २६३. सुगमं ।
विशेषार्थ-छब्बीस प्रकृतियोंमें से किसी का भी उत्कृष्ट अनुभागबन्ध करके मरकर नरकमें जन्म लेकर यदि दूसरे समयमें ही उसका घात कर देता है या नरकमें अन्तिम समय उत्कृष्ट अनुभागबन्ध करके दूसरे समयमें अन्य गतिमें चला जाता है तो नरकमें उक्त प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका जघन्य काल एक समय होता है। और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है, क्योंकि अन्तर्मुहूर्तसे अधिक काल तक उनका उत्कृष्ट अनुभाग नहीं ठहरता । तथा कोई नारकी उत्कृष्ट अनुभागका घात करके यदि आयुके क्षय हो जानेसे दूसरे समयमें मर जाता है तो उसके उक्त प्रकृतियों के अनुत्कृष्ट अनुभागका जघन्य काल एक समय होता है तथा उत्कृष्ट काल सामान्य से सम्पूर्ण तेतीस सागर जानना चाहिए और विशेषसे प्रत्येक नरककी जितनी जितनी उत्कृष्ट स्थिति है उतना जानना चाहिए। सम्यक्त्व प्रकृतिके उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका जघन्य काल एक समय उद्वेलनाकी अपेक्षासे होता है और उत्कृष्ट काल नरकमें अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण होता है। इसी प्रकार सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिके उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका काल जानना चाहिए । सम्यग्मिथ्यात्व तथा सम्यक्त्व प्रकृतिका अनुत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म दर्शनमोहके क्षपकके अपूर्वकरण कालमें प्रथम अनुभागकाण्डकका घात किये जाने पर होता है, अतः कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि मरकर नरकमें जन्म लेकर यदि दूसरे समयमें सम्यक्त्वका क्षपण कर देता है तो सम्यक्त्वके अनुत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका जघन्य काल एक समय होता है, अन्यथा अन्तर्मुहूर्त होता है, क्योंकि नरकमें भी कृतकृत्यवेदकका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त होता है। सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिका अनुत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म केवल मनुष्यगतिमें ही सम्भव है, क्योंकि कृतकृत्य होने पर ही मरण होता है और सम्यग्मिथ्यात्वका क्षपण इससे पहले हो चुकता है। सामान्य तिर्यञ्चोंमें छब्बीस प्रकृतियों के अनुत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका उत्कृष्ट काल असंख्यात पुद्गल परावर्तनप्रमाण है, क्योंकि उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका घात करके, अनुत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मके साथ पञ्चन्द्रियोंमें उनके योग्य उत्कृष्ट काल तक रहकर, पुनः एकेन्द्रियोंमें जाकर असंख्यात पुद्गल परावर्तन तक रह कर, पीछे पञ्चेन्द्रिय होकर, उत्कृष्ट अनुभागबन्ध कर लेने पर उतना काल होता है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिके उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका उत्कृष्ट काल पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तीन पल्य है, क्योंकि कोई तिर्यञ्च उपशम सम्यक्त्वको ग्रहण करके पुन: मिथ्यात्वमें आकर एकेन्द्रियों में कुछ कम पल्यके असंख्यातवें भाग काल तक ठहर कर, पुन: पञ्चेन्द्रिय होकर उपशम सम्यक्त्व को प्राप्त करके मिथ्यात्वमे जाकर तीन पल्यकी स्थिति लेकर भोगभूमिमें उत्पन्न हुआ और वहाँ पर वेदकसम्यग्दृष्टि होगया। फिर भोगभूमिसे निकलकर वह देव होगा, अतः तिर्यञ्चोंमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिके उत्कृष्ट अनुभाग का उत्कृष्ट काल पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तीन पल्य होता है। पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिकमे मूलमे कहे अनुसार जानना चाहिए तथा उन्हींके समान मनुष्यत्रिकमे समझ लेना चाहिए । देवगतिमे भी पूर्वमे कही गई प्रक्रियाके अनुसार कालकी योजना कर लेनी चाहिए। अनुदिशादिकमे जो सम्यक्त्व और सम्यग्मिध्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका जघन्य काल एक समय न बतलाकर अपनी अपनी जघन्य स्थिति प्रमाण बतलाया है उसका कारण यह है कि वहाँ इन दोनों प्रकृतियोंकी उद्वेलना नहीं होती, क्योंकि इनकी उद्वेलना मिथ्यात्वमे ही होती है।
* मिथ्यात्वके जघन्य अनुभागसत्कर्मका कितना काल है ? ६२९३. यह सूत्र सुगम है।
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