Book Title: Kasaypahudam Part 05
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh

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Page 225
________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ अणुभागविहत्ती ४ ३ २६८, जहण्णए पयदं । दुविहो णिदेसो- ओघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छत्त - अट्ठक० जहण्णाणु० जहण्णुक० तोमु० । अजहण्णाणु ० ज० अंतोमु०, उक्क० असंखेज्जा लोगा । सम्मत्त० जहण्णाणु जहण्णुक्क० एस० । अजहण्णाणु० ज० अंतोमु०, उक्क० वेळा द्विसागरोवमाणि तिष्णि पलिदोवमस्स श्रसंखेज्जदिभागेहि सादिरेयाणि । सम्मामि० जहरणपु० जहरणुक० अंतोमु० । अज० सम्मत्तभंगो । अनंताणु० चउक्क० जहण्णा' जहरयुक० एगसमओ । अज० तिरिण भंगा । तत्थ जो सो सादिओ सपज्जवसिदो तस्स ज० अंतोमु०, उक्क० उवडूपोग्गल परियट्ट । चदुसंज० - तिणिवेद० जहरणाणु० जहरणुक० एस० । अज० अणादिओ अपज्जवसिदो अणादिओ सपज्जवसिदो । छोक० जहणणारपु० जहण्णुक० अंतोमु० । ज० को संजलणभंगो । १९६ अनुभागरूपसे नहीं परिणमन करता । आगे इसीके सम्बन्धमें जो शंका-समाधान किया गया है। अतः अनन्तानुबन्धीके जघन्य अनुभागसत्कर्मके जघन्य और उत्कृष्ट दोनो काल एक समय मात्र हैं. I 1 $ २९८. जघन्यसे प्रयोजन है । निर्देश दो प्रकारका है - ओघ और आदेश | ओघसे मिथ्यात्व और आठ कषायोंके जघन्य अनुभागसत्कर्मका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । अजघन्य अनुभाग सत्कर्मका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल असंख्यात लोक है । सम्यक्त्वके जघन्य अनुभागसत्कर्मका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय अजघन्य अनुभागसत्कर्मका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल पल्योपमके तीन असंख्यात भागों से अधिक दो छियासठ सागरप्रमाण है । सम्यग्मिथ्यात्वके जघन्य अनुभागसत्कर्म और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । अजघन्य अनुभागस कर्मका भङ्ग सम्यक्त्व समान है । अनन्तानुबन्धी चतुष्कके जघन्य अनुभागसत्कर्मका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक है 1 अजघन्य अनुभागसत्कर्ममे तीन भङ्ग हाते हैं-- अनादि - अनन्त, अनादि- सान्त और सादि - सान्त । उनमें से जो सादि-सान्त भङ्ग है उसका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल कुछ कम अर्धपुद्गल परावर्तनप्रमाण है । चार संज्वलन कषाय और तीनों वेदोंके जघन्य अनुभागसत्कर्मका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अजघन्य अनुभाग सत्कर्म द अनन्त और अनादि - सान्त है । छ नोकषायोंके जघन्य अनुभाग सत्कर्मका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । अजघन्य अनुभागसत्कर्मका भङ्ग संज्वलनक्रोध के समान है । समय विशेषार्थ - ओघ से मिथ्यात्व, आठ कषाय, अनन्तानुबन्धी, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व के जघन्य अनुभागका काल चूर्णिसूत्र में बतलाये गये काल के अनुसार समझ लेना चाहिये । तथा 'जघन्य अनुभागका काल उत्कृष्ट अनुभागके कालकी ही तरह जानना । अनन्तानुबन्धीक अजघन्य अनुभागसत्कर्मम तीनों विकल्प होते हैं, क्योंकि उसका विसंयोजन होकर भी पुनः बन्ध हो सकता है। किन्तु चारो' संज्वलन और तीनों वेदोंमें सादि-सान्त भंग नहीं होता, क्योंकि इनका विनाश क्षपक मि ही होता है । ६ नोकषायों के जघन्य अनुभागसत्कर्मका काल भी "पूर्ववत् जानना । १. ता० प्रतौ [श्र] जहण्णा गु०, श्रा० प्रतौ प्रहरणा० इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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