Book Title: Kasaypahudam Part 05
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ अणुभागविहत्ती ४ जहण्णं गत्थि । पंचिंदियतिरिक्खअपज मणुसअपज्ज० मिच्छत्त-सोलसक०-णवणोक० पंचिंदियतिरिक्खभंगो। णवरि अणंताणु०चउक्क० सुहुमेइंदियपच्छायदस्स हदसमुप्पत्तियकम्मियस्स जहण्णं वत्तव्वं ।।
२७५. मणुसगदीए मणुस्सेसु ओघं। णवरि मिच्छत्त-अहकसायाणं पंचिंदियतिरिक्वभंगो । मणुसपज्ज. एवं चेव । णवरि इत्थि० छण्णोकसायभंगो। मणुसिणीसु मणुस्सोघं । णवरि पुरिस-णqसयवेदाणं छण्णोकसायभंगो।।
२७६. देवदि० देवाणं पढमपुढविभंगो । एवं भवण०-वाण। णवरि सम्मत्त० जहण्णं पत्थि । जोदिसिय० विदियपुढविभंगो। सोहम्मादि जाव उवरिमगेवजा त्ति मिच्छत्त० ज० कस्स ? अण्णद० जो चउवीससंतकम्मिओ दोवारं कसाए उवसामिदूण अप्पप्पणो देवेसु उववण्णो तस्स जहण्णयं । बारसक०-णवणोक० ज० कस्स ? अण्णद० जो वेदयसम्माइट्टी दसणमोहणीयमुवसामिय दोवारमुवसमसेढिमारूढो पच्छा दसणमोहणीयं खवेदण अप्पप्पणो देवेसु उववण्णो तस्स जहण्णमणुभागसंतकम्मं । सम्मत्त-अणंताणु० चउक्क० देवाणं भंगो। अणुदिसादि जाव सव्वसिद्धि ति एवं चेव । णवरि अणंताणु० चउक्क० ज० कस्स ? अण्णद० अणंताणु० चउक्क० उनमें सम्यक्त्वका जघन्य अनुभागसत्कर्म नहीं होता। पञ्चन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नव नोकषायोंके जघन्य अनुभागसत्कर्मका स्वामित्व पञ्चन्द्रिय तिर्यञ्चके समान होता है । इतना विशेष है कि अनन्तानुबन्धीचतुष्कके जघन्य अनुभाग सत्कर्मका स्वामी सूक्ष्म एकेन्द्रियसे मरकर आये हुए हतसमुत्पत्तिक कर्मवाले जीवके कहना चाहिये।
२७५ मनुष्यगतिमें मनुष्योंमें ओघके समान समझना चाहिए। इतना विशेष है कि मिथ्यात्व और आठ कषायोंके जघन्य अनुभागसत्कमका स्वामित्व पञ्चन्द्रिय तिर्यञ्चके समान है। मनुष्य पर्याप्तकोंमे इसी प्रकार जानना चाहिए। इतना विशेष है कि इनमें स्त्रीवेदका भङ्ग छह नोकषायोंके समान है। मनुष्यनियों में सामान्य मनुष्योंके समान स्वामित्व है। इतना विशेष है कि इनमें पुरुषवेद और नपुंसकवेदके जघन्य अनुभागसत्कर्मका स्वामित्व छह नोकषायके समान है।
१२७६. देवगतिमें देवोंमें पहली पृथिवीके समान भंग है। इसी प्रकार भवनवासी और व्यन्तरोंमें जानना चाहिए। इतना विशेष है कि उनमें सम्यक्त्वका जघन्य अनुभागसत्कर्म नहीं होता। ज्योतिषीदेवोंमें दूसरी पृथिवीके समान भंग है। सौधर्म स्वर्गसे लेकर उपरिम वेयक तकके देवोंमें मिथ्यात्वका जघन्य अनुभागसत्कर्म किसके होता है ? अनन्तानुबन्धीचतुष्कके सिवाय चौबीस प्रकृतियोंकी सत्तावाला जो जीव दो बार कषायोंका उपशमन करके उन उन देवोंमें उत्पन्न हुआ है उसके जघन्य अनुभागसत्कर्म होता है। बारह कषाय और नव नोकषायोंका जघन्य अनुभागसत्कर्म किसके होता है ? जो वेदकसम्यग्दृष्टि जीव दर्शनमोहनीयका उपशम करके दो बार उपशम श्रेणीपर चढ़ा, पीछे दर्शनमोहनीयका क्षय करके उन उन देवोंमें उत्पन्न हुआ है उसके जघन्य अनुभागसत्कर्म होता है। सम्यक्त्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्कका भंग सामान्य देवाके समान होता है। अनुदिशसे लेकर सवार्थसिद्धि पर्यन्त इसी प्रकार होता है। अनन्तानु
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