Book Title: Kasaypahudam Part 05
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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गा० २२ अणुभागविहत्तीए सण्णा
१३७ तिस्से तत्थ वावारादो । जदि वि जुत्तीए सव्वघादित्तमवगयं तो वि सा एत्थ ण पहाणा, अहेउवायम्मि तण्णिहसिस्साणं तत्थ अणुग्गहकारित्ताभावादो। तदो मिच्छत्तजहण्णाणुभागसंतकम्म सव्वघादि ति वत्तव्वं चेव । किं च जहा चारित्तमोहक्खवणाए चदुण्हं संजलणाणं पुव्वफदयाणि ओहट्टिय तेसिं जहण्णफयादो अणंतगुणहीणाणि अपुव्वफद्दयाणि काऊण पुणो ताणि वि घाइय सगजहण्णफद्दयादो अणंतगुणहीणाओ किट्टिओ कदाओ, तहा एत्थ दंसणमोहणीयक्खवणाए मिच्छत्ताणुभागस्स अपुव्वफद्दयादिकिरियाओ काऊण देसघाइविहाणं णत्थि त्ति जाणावण वा सव्वघादिणिद्देसो कदो। सुहमणिगोदस्स मिच्छत्तजहण्णाणुभागसंतकम्मादो अणंतगुणेण अणुभागसंतकम्मेण दंसणमोहक्खवणाए किट्टीकरणादिविहाणेण विणा मिच्छत्तं खविजदि त्ति जाणाक्ण वा। दारुसमाणाणुभागफद्दयाणमणंतिमभागे सुहुमणिगोदेसु जेण मिच्छत्ताणुभागसंतकम्म जहण्णं जादं तेण तं दुहाणियं । एदेण एगहाण-तिहाण-चउहाणाणं पडिसेहो कदो । मिच्छताणुभागस्स दारु--अहि-सेलसमाणाणि ति तिण्णि चेव हाणाणि लतासमाणफद्दयाणि उल्लंघिय दारुसमाणम्मि अवहिदसम्मामिच्छत्तुक्कस्सफद्दयादो अणंतगुणभावेण मिच्छत्तजहण्णफद्दयस्स अवहाणादो। तदो मिच्छत्तस्स जहण्णाणुभागसंतकम्मं दुहाणियमिदि बुत्ते दारु-अहि-समाणफयाणं गहणं कायव्बं, अण्णहा है। यद्यपि युक्तिसे उसका सर्वघातित्व जान लिया गया है तो भी यहाँ युक्ति प्रधान नहीं है, क्योंकि अहेतुवाद रूप आगममें श्रद्धा रखनेवाले शिष्योंका युक्ति कोई उपकार नहीं कर सकती। अत: 'मिथ्यात्वका जघन्य अनुभागसत्कर्म सर्वघाती है। ऐसा यहाँ कहना ही चाहिये। दूसरे, जैसे चारित्रमोहकी क्षपणामें चारों संज्वलनकषायोंके पूर्वस्पर्धकोंका अपकर्षण करके उनके जघन्य स्पर्धकसे भी अनन्तगुणे हीन अपूर्वस्पर्धक किये जाते हैं और फिर अपूर्व स्पर्धकोंका भी घात करके अपूर्वस्पर्धकके जघन्य स्पर्धकसे भी अनन्तगुणी हीन कृष्टियां की जाती हैं, उसी प्रकार यहाँ दर्शनमोहनीयकी क्षपणामें अपूर्वस्पर्धक आदि क्रियाओंको करके मिथ्यात्वके अनुभागका देशघातिविधान नहीं है । अर्थात् मिथ्यात्वके अनुभागको क्रियाद्वारा देशघातीरूप नहीं किया जा सकता है, वह सर्वधाती ही रहता है, यह बतलानेके लिये सूत्रमें सर्वघाती पदका निर्देश किया है। अथवा, दर्शनमोहके क्षपण कालमें सूक्ष्म निगोदिया जीवके मिथ्यात्वके जघन्य अनुभागसत्कर्मसे अनन्तगुणे अनुभागसत्कर्मके रहते हुए कृष्टिकरण आदि क्रियाके बिना ही मिथ्यात्वका क्षपण करता है यह बतलानेके लिये सूत्र में सर्पघाती पद दिया है। यत: सूक्ष्मनिगोदिया जीवों में मिथ्यात्वका अनुभागसत्कर्म जघन्य है और वह दारुसमान अनुभागस्पर्धकोके अनन्तवें भागमें स्थित है अत: वह द्विस्थानिक है। इससे वह एक स्थानिक, त्रिस्थानिक और चतुःस्थानिक है इस बातका निषेध कर दिया है।
शंका-मिथ्यात्वके अनुभागके दारुके समान, अस्थिके समान और शैलके समान इस प्रकार तीन ही स्थान हैं, क्योंकि लतासमान स्पर्धको का उल्लंघन करके दारुसमान अनुभागमें स्थित सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट स्पर्धकसे मिथ्यात्वका जघन्य स्पर्धक अनन्तगुणा है। अत: मिथ्यात्वका जघन्य अनुभागसत्कर्म द्विस्थानिक है ऐसा कहने पर दारुसमान और अस्थिसमान स्पर्धको का ग्रहण करना चाहिये. अन्यथा वह द्विस्थानिक नहीं बन सकता है।
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