Book Title: Kasaypahudam Part 05
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ अणुभागविहत्ती ४ दोहि पयारेहि चदुढाणियतसिद्धीदो। अधवा मिच्छत्तुक्कस्सफद्दयम्मि लदा-दारु--अहिसेलसमागहाणाणि चत्तारि वि अत्थि, तेसि फद्दयाविभागपलिच्छेदाणं संखाए एत्थुवलंभादो । ण च बहुएसु अविभागपलिच्छेदेसु थोवाविभागपलिच्छेदाणमसंभवो, एगादिसंखाए विणा तस्स बहुताणुववत्तीदों। तम्हा मिच्छत्तुकस्सफद्दयम्मि चत्तारि वि हाणाणि अस्थि त्ति तस्स चदुट्टाणियत्तं ण विरुज्झदे। मिच्छत्तकस्साणुभागसंतकम्म चदुढाणियमिदि वुत्ते मिच्छत्तेगुक्कस्सफदयस्सेव कथं गहणं ? ण, मिच्छत्तुक्कस्सफद्दयचरिमवग्गणाए एगपरमाणुणा धरिद अणंताविभागपलिच्छेदणिप्पण्णअणतफयाणमुक्कस्साणुभागसंतकम्मववएसादो। ण च तत्थ अवहिदाविभागपलिच्छेदेसु फद्द्याणि णत्थि अविभागपलिच्छेदुत्तरकमेण वडिविरहियाणमणंताविभागपलिच्छेद अंतरिय अणंतवारवडियाणं फद्दयभावविरोहादो। एसो अत्थो उवरि सव्वत्थ जहावसरं संभरिय वत्तव्यो।
समाधान-जिस प्रकार पहले दो तरीकेसे मिथ्यात्वके जघन्य अनुभागसत्कर्मको द्विस्थानिक सिद्ध किया है वैसे ही उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म भी चतुः स्थानिक सिद्ध होता है। अथवा, मिथ्यात्वके उत्कृष्ट स्पर्धकमें लतासमान, दारुसमान, अस्थिसमान और शैलसमान चारों ही स्थान हैं. क्योंकि उनके स्पर्धाकोंके अविभागी प्रतिच्छेदोंकी संख्या यहाँ पाई जाती है और बहुत अविभागप्रतिच्छेदोंमें स्तोक अविभागप्रतिच्छे दोंका होना असंभव नहीं है, क्योंकि एक आदि संख्याके बिना अविभागीप्रतिछेदोंकी संख्या बहुत नहीं हो सकती है। अर्थात् बहुत संख्यामें थोड़ी संख्या होती ही है, अन्यथा वह बहुत ही नहीं हो सकती अतः, मिथ्यात्वके उत्कृष्ट स्पर्धकमें चारों हो स्थान होते हैं, इसलिये उसके चतुःस्थानिक होनेमें कोई विरोध नहीं आता।
शंका-मिथ्यात्वका उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म चतुःस्थानिक है ऐसा कहने पर मिथ्यात्वके एक उत्कृष्ट स्पर्धकका ही ग्रहण कैसे होता है ?
समाधान नहीं, क्योंकि मिथ्यात्वके उत्कृष्ट स्पधोककी अन्तिम वर्गरणामें एक परमाणुके द्वारा धारण किये गये अनन्त अविभागी प्रतिच्छेदोंसे निष्पन्न अनन्त स्पधकोंकी उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म यह संज्ञा है। यदि कहा जाय कि उत्कृष्ट स्पर्धककी अन्तिम वर्गणाम जो अविभागी प्रतिच्छेद हैं उनमें स्पर्शक नहीं हैं, सो यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि अनन्त अविमागी प्रतिच्छेदोंका अन्तर दे दे कर उत्तरोत्तर अविभागीप्रतिच्छेदके क्रमसे अनन्तबार जिनमें वृद्धि महीं होती उनके स्पर्धक होने में विरोध है। ऊपर सर्वत्र प्रसंगानुसार इस अर्थका स्मरण करके कथन कर लेना चाहिये।
विशेषार्थ-चूर्णिसूत्र में कहा है कि मिथ्यात्वका उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म सर्वघाती और चतुःस्थानिक होता है । इसपर जब यह शंका की गई कि मिथ्यात्वके अनुभागमें लता समान स्पर्धक तो पाये नहीं जाते तब वह चतुःस्थानिक कैसे है ? तो कहा गया कि मिथ्यात्वके उत्कृष्ट स्पर्धकमें लतासमान, दारुसमान, अस्थिसमान और शैलसमान चारों स्पर्धक पाये जाते हैं। इस समाधान परसे यह शंका की गई कि सूत्रमें तो मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मको चतुःस्थानिक कहा है और समाधानमें कहा गया है कि मिथ्यात्वका उत्कृष्ट स्पर्धक चतुःस्थानिक है तो उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मसे एक उत्कृष्ट स्पर्धकका ही ग्रहण क्यों किया गया है ? इसका जो
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