Book Title: Kasaypahudam Part 05
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
View full book text
________________
१५८
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहची ४ * उकस्साणुभागं पंधिदूण जाव ण हणदि ।
२३१. उक्कस्ससंकिलेसेण उक्कस्समणुभागं बंधिदण जाव तं कंडयघादेण ण हणदि ताव तस्स उक्कस्साणुभागसंतकम्मं होदि । सो उकस्साणुभागबंधो कस्स होदि ? सण्णिपंचिंदियपज्जतसव्वुक्कस्ससंकिलेसमिच्छाइडिस्स । जदि एवं तो एवंविधो उक्कस्साणुभागबंधओ त्ति किण्ण परूविदं ? ण, अवुत्ते वि आइरिओवदेसादेव जाणिज्जदि त्ति तदपरूवणादो । सो जाव तमुक्कस्साणुभागसंतकम्मं कंडयघादेण ण हणदि ताव तेण कत्थ कत्थ उप्पज्जदि त्ति वुत्ते तण्णिण्णयत्थमुत्तरमुत्तं भणदि ।
8 ताव सो होज एइंदिनोवा वेइंदिनो वा तेइंदिनो वा चउरिदियो वा असरणी वा सरणी वा।
२३२. तेणुक्कस्ससंतकम्मेण सह कालं कादण एइंदिओ होज्ज, बीइंदिओ तीइंदिओ चउरिदियो असण्णिपंचिंदिओ सण्णिपंचिदिओ वा होज्ज; उक्कस्साणुभागसंतकम्मेण सह एदेसि विरोहाभावादो । एइंदिया बहुविहा बादर-सुहुम-पज्जत्तापज्जत्तभेयेण । तत्थ केसिं गहणं ? सव्वेसि पि । कुदो ? मुत्तम्मि विसेसणिद्दे साभावादो। एवं वेइं दियादीणं पि वत्तव्वं । एदस्य सुत्तस्स अपवादहमुत्तरसुतं भणदि ।
* जो उत्कृष्ट अनुभागका बंध करके जब तक उसका घात नहीं करता है ।
२३१. उत्कृष्ट संक्ल शसे उत्कृष्ट अनुभागका बंध करके जब तक उसे काण्डकघातके द्वारा नहीं घातता है तब तक उसके मिथ्यात्वका उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म होता है।
शंका-वह उत्कृष्ट अनुभागबन्ध किसके होता है ? समाधान-सर्वोत्कृष्ट संक्लेशवाले संज्ञी पञ्चन्द्रिय पर्याप्त मिथ्यादृष्टिके होता है।
शंका-यदि ऐसा है तो 'जो इस प्रकार उत्कृष्ट अनुभागका बंधक है उसके मिथ्यात्वका उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म होता है। इस प्रकार क्यों नहीं कहा ?
समाधान नहीं, क्योंकि नहीं कहने पर भी अचार्यके उपदेशसे ही यह बात ज्ञात हो जाती है, अतः उसका कथन नहीं किया है।
वह जीव जब तक उस उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मको काण्डकघातके द्वारा नहीं घातता है तब तक वह कहाँ कहाँ उत्पन्न होता है ऐसा प्रश्न करने पर उसका निर्णय करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं -
* तब तक वह एकेन्द्रिय, दोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय, असंज्ञी अथवा संज्ञी होता है, उसके मिथ्यात्वका उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म होता है।
२३२. उत्कृष्ट अनुभाग सत्कर्मके साथ मरण करके वह जीव एकेन्द्रिय होता है,दोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय, असंज्ञी पञ्चन्द्रिय अथवा संज्ञी पञ्चन्द्रिय होता है, क्योंकि उत्कृष्ट अनुभाग सत्कर्मके साथ इन पर्यायोंका कोई विरोध नहीं है।
शंका-बादर, सूक्ष्म, पर्याप्त और अपर्याप्तके भेदसे एकेन्द्रिय जीव अनेक प्रकारके हैं। उनमेंसे किसका ग्रहण किया है ?
समाधान-सभीका ग्रहण किया है; क्योंकि सूत्रमें किसी विशेषका निर्देश नहीं है। इसी प्रकार दोइन्द्रियादिकके सम्बन्धमें भी कहना चाहिये। अब इस सूत्रके अपवादके
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org