Book Title: Kasaypahudam Part 05
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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गा० २२]
अणुभागविहत्तीए सामित्तं अद्धाए संखेज्जेसु भागेसु गदेसु मिच्छत्तं सम्मामिच्छत्तम्मि संछुभिय पुणो सम्मामिच्छत्तं पि अंतोमुहुत्तेण सम्मत्तम्मि संछुहिय अवस्सियं हिदिसंतकम्मं काऊण अणुसमयओवट्टणाए सम्मत्ताणुभागसंतकम्म ताव घादेदि जाव चरिमसमयअक्खीणदंसणमोहणीओ ति। तस्स उदयमागदएगगुणसेढिगोवुच्छाए अणुभागो जहण्णओ, सव्वुक्कस्सघादं पाविय हिदत्तादो।
* सम्मामिच्छत्तस्स जहएणयमणुभागसंतकम्म कस्स ?
२४४. सुगमं । ॐ अवणिजमाणए अपच्छिमे अणुभागकंडए वदमाणस्स ।
२४५. अवणिज्जमाणए अपच्छिमे हिदिकंडए त्ति किण्ण वुत्तं ? ण, उब्वेलणचरिमडिदिखंडयचरिमफालीए वि वट्टमाणस्स जहण्णाणुभागत्तप्पसंगादो। ण च करणके कालमें संख्यात भाग बीतने पर मिथ्यात्वका सम्यग्मिथ्यात्वमें क्षेपण कर पुनः अन्तमुहूर्तमें सम्यग्मिथ्यात्वका भी सम्यक्त्वमें क्षेपण कर, सम्यक्त्व प्रकृतिके स्थितिसत्कर्मको आठ वर्ष प्रमाण करके, प्रतिसमय अपवर्तनाके द्वारा सम्यक्त्वके अनुभागसत्कर्मको तब तक घातता है जब तक उस अक्षीणदर्शनमोहीके दर्शनमोहके क्षपणका अन्तिम समय आता है उस चरम समयवर्ती अक्षीणदर्शनमोहीके उदयको प्राप्त एक गणश्रेणिगोपुच्छाका अनुभाग जघन्य होता है, क्योंकि के सम्यक्त्वके अनुभागसत्कर्मका सर्वोत्कृष्ट घात होते होते वह अनुभाग अवशिष्ट रहता है।
विशेषार्थ--अनिवृत्तिकरणके कालमेंसे संख्यात भाग बीत जाने पर जब दर्शनमोहकी क्षपण का प्रस्थापक जीव मिथ्यात्वका सम्यग्मिथ्यात्वमें और सम्यग्मिथ्यात्वका सम्यक्त्वप्रकृति में संक्रमण करके सम्यक्त्व प्रकृतिकी स्थितिको घटाकर आठ वर्ष प्रमाण कर लेता है तो सम्यक्त्व द्विस्थानिक अनुभागको एक स्थानिकरूप करनेके लिये प्रति समय अपवर्तनघात करता है। अर्थात् पहले तो अन्तर्मुहूर्त काल के द्वारा अनुभागका काण्डकघात करता था अब उसका उपसंहार करके सम्यक्त्वके अनुभागको प्रति समय अनन्तगुणा हीन अनन्तगुणा हीन करता है। जिसका यह आशय हुआ कि पिछले अनन्तरवर्ती समयमें जो अनुभागसत्कर्म था वर्तमान समयमें उदयावली बाह्य अनुभागसत्कर्मको उससे अनन्तगुणा हीन करता है। उदयावलि बाह्य अनुभागसत्कर्मसे उदयावली के भीतर प्रविष्ट अनुभागसत्कर्मको अनन्तगुणा हीन करता है और उससे उदयक्षणमें प्रविष्ट होनेवाले अनुभागसत्कर्मको अनन्तगुणा हीन करता है। ऐसा करते हुए जिस अन्तिम समयके पश्चात ही जीव क्षायिकसम्यग्दृष्टि हो जाता है उस समयमें सम्यक्त्व प्रकृतिके जो निषेक उदयमें आते हैं उनमें सबसे कम अनुभाग होता है, क्योंकि वह अनुभाग सबसे अधिक घाता जाकर अवशिष्ट रहता है, अतः सम्यक्त्व प्रकृतिके जघन्य अनुभागका स्वामी चरम समयवर्ती अक्षीणदर्शनमोही जीव होता है। ... ___* सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य अनुभागसत्कर्म किसके होता है ? ... . ६२४४. यह सूत्र सुगम है।
* अपनीयमान अन्तिम अनुभागकाण्डकमें वर्तमान जीवके सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य अनुभागसत्कर्म होता है। . . . . .
६२४५. शंका-'अपनीयमान अन्तिम स्थितिकाण्डकमें' ऐसा क्यों नहीं कहा ? समाधान नहीं, क्योंकि ऐसा कहने पर उद्वेलनाको प्राप्त हुए अन्तिम स्थितिकाण्डक की
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