Book Title: Kasaypahudam Part 05
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ द्वाणियं णत्थि । मणुसिणीसु पुरिस०-णउसय० एगहाणिय पत्थि।
$ २२१. आदेसेण रइएसु मिच्छत्त-सोलसक०-णवणोक० उक० चउहाणियं । अणुक्क० चउहाणियं तिहाणियं विटाणियं वा । सम्मत्त० उक्क० विद्याणियं । अणुक्क० एगहाणियं । सम्मामि० उक्कस्साणुक्कस्स० वेढाणियं । एवं पढमपुढवि-तिरिक्ख-पंचिंदियतिरिक्ख-पंचिंतिरि०पज्ज०--देव-सोहम्मादि जाव सहस्सारो ति । विदियादि जाव सत्तमि त्ति एवं चेव । णवरि सम्मत्त० अणुक्क० एगहाणं णत्थि । एवं पंचिंदियतिरिक्खजोणिणी-पंचिंतिरि०अपज्ज.-मणुसअपज्ज०-भवण-वाण-जोदिसिए ति । आणदादि जाव सव्वदृसिद्धि त्ति छन्वीसं पयडीणं उक्क० अणुक्क० वेहाणियं । सम्मत्तसम्मामिच्छताणं देवोघभंगो । एवं जाणिदण णेदव्वं जाव अणाहारि ति ।
२२२. जहण्णए पयदं। दुविहो णिद्दे सो-ओघेण आदेसेण । अोघेण मिच्छत्तबारसक०-छण्णोक० जहण्णाणु० वेढाणियं । अज० वेढाणियं तिहाणियं चउहाणियं वा । सम्मत्त० ज० एगहाणियं । अज० एगहाणियं विद्याणियं वा । सम्मामि० जहण्ण. अजहणणं पि विद्वाणियं । पुरिस०-चदुसंज० जह० एगहाणियं । अज० एगहाणियं विहाणियं तिहाणियं चउहाणियं वा । इत्थि०-णवूस० ज० एगहागियं । अज० वेहाणियं स्त्रीवेदका अनुभागसत्कर्म एकस्थानिक नहीं है। तथा मनुष्यिनियोंमें पुरुषवेद और नपुंसकवेदका अनुभागसत्कर्म एकस्थानिक नहीं है ।
६२२१. आदेशसे नारकियोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नव नोकषायोंका उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म चतु स्थानिक है और अनुत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म चतुःस्थानिक, त्रिस्थानिक और द्विस्थानिक है। सम्यक्त्वका उत्कृष्ट अणुभागसत्कम द्विस्थानिक है और अनुत्कृष्ट अनुभाग सत्कम एकस्थानिक है। सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म द्विस्थानिक है। इसी प्रकार पहली पृथिवी, सामान्य तिर्यञ्च, पञ्चन्द्रिय तिर्यञ्च, पञ्चन्द्रिय तिर्यश्च पर्याप्त, सामान्य देव और सौधर्म स्वर्गसे लेकर सहस्रार स्वर्ग तकके देवोंमें जानना चाहिए। दूसरीसे लेकर सातवीं पृथिवी तकके नारकियोंमें इसी प्रकार जानना चाहिए। इतना विशेष है कि उनमें सम्यक्त्वका अनुस्कृष्ट अनुभागसत्कर्म एकस्थानिक नहीं है। इसी प्रकार पञ्चेन्द्रिय तिर्यच्चयोनिनी, पञ्चन्द्रियतिर्यश्च अपर्याप्त, मनुष्य अपर्याप्त, भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषियोंमें जानना चाहिए। आनत स्वर्गसे लेकर सर्वार्थसिद्वि पर्यन्त छब्बीस प्रकृतियोंका उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म द्विस्थानिक है। तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका सामान्य देवोंके समान भंग है । इस प्रकार जानकर अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिये।
२२२. जघन्यका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मिथ्यात्व, बारह कषाय और छह नोकषायोंका जघन्य अनुभागसत्कर्म द्विस्थानिक है । अजघन्य अनुभागसत्कर्म द्विस्थानिक, त्रिस्थानिक और चतुःस्थानिक है। सम्यक्त्वका जघन्य अनुभाग सत्कर्म एकस्थानिक है और अजघन्य अनुभागसत्कर्म एकस्थानिक और द्विस्थानिक है। सम्यग्मिध्यात्वका जघन्य और अजघन्य भी अनुभागसत्कर्म द्विस्थानिक है। पुरुषोद और चार संज्वलन कषायोंका जघन्य अनुभागसत्कर्म एकस्थानिक है और अजघन्य अनुभागसत्कर्म एकस्थानिक, विस्थानिक, त्रिस्थानिक और चतुःस्थानिक है। स्त्रीवेद और नपुंसकवेदका जघन्य
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