Book Title: Kasaypahudam Part 05
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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गा० २२ ]
अणुभागविहत्तीए सण्णा वा चउट्ठाणियं वा।
२०६. इत्थिवेदस्साणुभागसंतकम्मं सव्वत्थ सव्वघादी चेव । कुदो ? अणियष्टिखवगस्स इत्थिवेदचरिमाणुभागकंडयप्पहुडि हेट्टा सव्वावत्थासु द्विदजीवस्स इत्थिवेदाणुभागम्मि घादिज्जतम्मि वि देसघादित्ताणुवलंभादो । किम घादिज्जमाणं पि इत्थिवेदाणुभागसंतकम्मं देसघादिफहयाणमुद्देसं ण पावेदि? सहावदो। ण सहावो पडिजोयणारुहो, सहावोण तक्कगोयरोत्ति आरिसादो। सव्वे 'वा' सहा 'च' सहत्था त्ति । तं सव्वघादी इत्थिवेदाणुभागसंतकम्मं दुहाणियं च तिहाणियं च चदुहाणियं चेदि संबंधो कायव्यो । एगहाणियं किण्ण होदि ? ण, तत्थ सव्वघादित्ताभावादो । इत्थिवेदाणुभागेणं जहण्णेण वि सव्वघादिणा होदव्वं, अणंतरमित्थिवेदाणुभागो सव्वघादी चेवे त्ति णिरूविदत्तादो । इत्थिवेदाणुभागसंतकम्म सव्वघादी चदुहाणियमिदि सुत्तंकायव्वं, चदुहाणियसंतकम्मम्मि एगढाणिय-दुहाणिय-तिहाणियाणुभागसंतकम्माणमुवलंभादो ति ? ण, एवं मुत्ते संते इत्थिवेदाणुभागसंतकम्मस्स सव्वकालं चदुहाणियत्तप्पसंगादो। ण च एवं, संसारावत्थाए इत्थिवेदाणुभागसंतकम्मस्स कया वि दुढाणियस्स कया वि तिहाणियस्स चदुहाणियस्स वा उवलंभादो । एदस्स मुत्तस्स विसयपरूवण उत्तरमुत्तं भणदिचतुःस्थानिक होता है।
२०६. स्त्रीवेदका अनुभागसत्कर्म सर्वत्र सर्वघाती ही है; क्योंकि अनिवृत्तिकरण क्षपकके स्त्रीवेदके अन्तिम अनुभागकाण्डकसे लेकर पूर्वकी सब अवस्थाओंमें स्थित जीवके स्त्रीवेदके अनुभागका घात होनेपर भी देशघातीपना नहीं पाया जाता है।
शंका- घात होने पर भी स्त्रीवेदका अनुभागसत्कर्म देशघातिस्पर्धकोंके स्थानको क्यों नहीं पाता है ?
समाधान- उसका ऐसा स्वभाव ही है। और स्वभावके विषयमें प्रश्न नहीं किया जा सकता, क्योंकि 'स्वभाव तर्कका विषय नहीं है' ऐसा आर्षवचन है।
सूत्रमें आये हुए सब वा शब्दोंका अर्थ और है। अत: स्त्रीवेदका वह सर्वघाती अनुभागसत्कर्म द्विस्थानिक, त्रिस्थानिक और चतुःस्थानिक है ऐसा सम्बन्ध लगाना चाहिये। .
शंका- एकस्थानिक क्यों नहीं है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि एकस्थानिकमें सर्वघातीपनेका अभाव है। तथा स्त्रीवेदका जघन्य अनुभाग भी सर्वघाती होना चाहिये; क्यों कि अनन्तर ही 'स्त्रीवेदका अनुभागसर्वघाती ही है। ऐसा कह आये हैं।
शंका- 'स्त्रीवेदका अनुभागसत्कर्म सर्वघाती और चतुःस्थानिक होता है। ऐसा सूत्र बनाना चाहिये, क्योंकि चतुःस्थानिक अनुभागसत्कर्ममें एकस्थानिक, द्विस्थानिक और त्रिस्थानिक अनुभागसत्कर्म पाये ही जाते हैं।
समाधान- नहीं; क्योंकि ऐसा सूत्र होनेपर स्त्रीवेदके अनुभागसत्कर्मको सदा चतुःस्थानिक होनेका प्रसंग आता है। किन्तु वह सदा चतुःस्थानिक नहीं होता, क्योंकि संसार अवस्था में स्त्रीवेदका अनुभागसत्कर्म कभी द्विस्थानिक, कभी त्रिस्थानिक और कभी चतुःस्थानिक पाया
१. ता० प्रती ण (इ) स्थिवेदाणुभागेण, प्रा. प्रतौ णस्थि वेदाणुभागेण इति पाठः ।
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