Book Title: Kasaypahudam Part 05
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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गा० २२]
अणुभागविहत्तीए सण्णा चरिमाणुभागफद्दयमणंतगुणहीणमिदि। एदं मोहणीयपडिबद्धत्तादो महाबंधप्पाबहुअं ण होदि ति णासंकणिज्ज, महाबंधचउसद्विवदियअप्पाबहुअगम्भविणिग्गयस्स ततो विणिग्गय पडि अविरोहादो।
___एवं फद्दयपरूवणा समता। ॐ तत्थ दुविधा सरणा घादिसण्णा ठाणसण्णा च ।
३१६६. तत्थेत्ति बुत्ते अणेण बिहाणेण वुत्ताणुभागफदएमु चि घेचव्वं । सण्णा णाम अहिहाणमिदि एयहो । सा दुविहा-घादिसण्णा ठाणसण्णा चेदि । एदेसि मोहाणुभागफदयाणं घादि चि सण्णा जीवगुणघायणसीलचादो। एदेसिं चेव फयाणं हाणमिदि च सपणा लद-दारु-अहि-सेलाणं सहावम्मि अवहाणादो। जा सा घादि
शंका-यह अल्पबहुत्व केवल मोहनीयकर्मसे सम्बद्ध है. अतः यह महाबन्धका अल्पबहुत्व नहीं हो सकता। .
समाधान-ऐसी आशङ्का नहीं करनी चाहिये, क्योंकि यह अल्पबहुत्व महाबन्धके चौसठ पदिक अल्पबहुत्वके भीतरसे निकला है. अत: इसे महाबन्धसे निकला हुए माननेमें कोई विरोध नहीं आता है।
विशेषार्थ-संज्वलन क्रोध, मान, माया, और लोभ तथा नव नोकषायों के स्पर्धक देशघातीसे लेकर सर्वघाती पर्यन्त होते हैं। अर्थात् लता समान जघन्य स्पर्धकसे लेकर लतारूप, दारुरूप. अस्थिरूप और शैलरूप अनुभाग सत्कर्म इन तेरहो प्रकृतियोंके होते हैं। चूर्णिसूत्रमें केवल इतना कहा गया है कि इन तेरह प्रकृतियोंके अनुभागसत्कर्म देशघातीके प्रथम स्पर्धकसे लेकर आगे सर्वघातीपर्यन्त होते हैं । उस परसे यह शंका होती है कि सर्वघातीसे शैलपर्यन्तका ग्रहण क्यों किया गया ? सर्वघातीसे दारुके सर्वघाती स्पर्धकके समान स्पर्धकका भी तो ग्रहण हो सकता है। इसका उत्तर यह दिया गया है कि आगे स्थानसंज्ञाके प्रकरणमें 'चार संज्वलन कषायोंका अनुभाग सत्कर्म एक स्थानिक, दा स्थानिक, त्रिस्थानिक और चतुस्थानिक होता है। ऐसा कहा है उससे यह निष्कर्ष निकलता है कि 'सर्वघाती' से शैलपर्यन्तका ही ग्रहण इष्ट है। यहाँ इतना विशेष ज्ञातव्य है कि यद्यपि मिथ्यात्व, बारह कषाय, चार संज्वलन और नौ नकषायोंका अनभाग सत्कर्म शैलपर्यन्त कहा है फिर भी उन सबके अन्तिम स्पर्धक समान नहीं हैं, उनके अनुभाग सत्कर्ममें अन्तर है जैसा कि आगे दिये गये महाबन्ध नामक सिद्धान्तग्रन्थके अल्पबहुत्वसे स्पष्ट होता है। इस परसे यह शंका की गई है कि महाबंध नामक सिद्धान्तग्रन्थमें सभी कर्मोंका निरूपण है और यह अल्पबहुत्व केवल मोहनीयकर्मका है, अतः इसे महाबन्धका अल्पबहत्व नहीं कहा जा सकता। तो इसका यह समाधान किया गया कि ६४ स्थानों के भीतरसे केवल मोहनीयका यह अल्पबहुत्व निकाला है, अत: इसे महाबन्धका ही जानना चाहिए।
इस प्रकार स्पर्धक प्ररूपणा समाप्त हुई। * उनमें संज्ञा दो प्रकार की है-घातिसंज्ञा और स्थानसंज्ञा ।
६ १९६. उनमें ऐसा कहने से इस विधिसे कहे गये अनुभागस्पर्धकोंमें ऐसा अर्थ लेना चाहिये । संज्ञा, नाम और अभिधान ये शब्द एकार्थक हैं । वह संज्ञा दो प्रकारकी है-धाति संज्ञा और स्थानसंज्ञा । इन मोहनीयके अनुभागस्पर्धकोंकी घाती यह संज्ञा है, क्योंकि जीवके गुणोंको घातना उनका स्वभाव है। तथा इन्हीं स्पर्धको की स्थान यह संज्ञा भी है, क्योंकि वे लतारूप, दारुरूप, अस्थिरूप और शैलरूप स्वभावमें अवस्थित हैं। वह घातिसंज्ञा भी सर्वघाती और
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