Book Title: Kasaypahudam Part 05
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
View full book text
________________
गा० २२ ]
अणुभागविहत्तीए फय परूवणा
१६५. देसघादीणमादिफद्दयं इदि वुत्ते सम्मत्तस्स आदिफद्दयसरिसफद्दयस्स गहणं । जदि एवं तो 'देसघादीणं' इदि बहुवयणणिद्देसो ण घडदे १ तेरस - पयडी एकिस्से पयडीए अणुभागे निरुद्धे सेसतेरसपयडीओ पेक्खिदूण पयडीणमिदि बहुत्रयणत्ववत्तदो । एदं फदममादि काढूण उवरि सव्वघादि चि अप्पडिसिद्धं इदि बुसे लदासमाण-जहण्णफद्दयमादि काढूण उवरि लदा-दारु-अहि-सेलसमाणफद्दयाणि सव्वाणि गंतॄण एदासि तेरसपयडीणमणुभागसंतकम्मं होदि चि घेत्तव्वं ? उवरि सव्वधादि देसघादिदारुसमाणं मोत्तूण सव्वघादिदारुसमाणफदएहि सह अद्विसेलसमाणफद्दयाणि वि घेष्पति ति कुदो णव्वदे ? उवरिं द्वाणसण्णापरूवणाए चदुसंजलणाणुभागसंतकम्मं एगहाणियं वा दुहारिणयं वा तिट्टाणियं वा चदुहाणियं वाति सुत्तादो णव्वदे | संपहि मिच्छनादीरणं सव्वकम्मारणं जदि वि फद्दयाणि उवरि अपडिसिद्धाणि चि वृत्तं तो वि ण तेसिं सव्वेसि पि चरिमफद्दयाणि सरिसाणि । तं कुदो णव्वदे ? महाबंध सुत्तसिद्धप्पाबहुआदो । तं जहा - मिच्छत्तुकस्सgreat मफद्दयादो सेलसमाणादो अर्णताणुबंधिलोभचरिमाणुभागफद्दयमणंतगुणहीणं । स्पर्धकसे लेकर आगे विना प्रतिषेधके सर्वघाती पर्यन्त हैं
$ १९५ देशघातियोंका प्रथम स्पर्धक ऐसा कहनेपर उससे सम्यक्त्व प्रकृति के प्रथम स्पर्धकके समान स्पर्धकका ग्रहण करना चाहिये ।
शंका- यदि 'देशघातियोंके इस पदसे केवल एक सम्यक्त्वप्रकृतिका ग्रहण करते हो तो 'देशघातियों के' ऐसा बहुबचनका निर्देश नहीं बनता है ।
समाधान-नहीं, क्योंकि तेरह प्रकृतियों में से एक प्रकृति के अनुभाग के विवक्षित होनेपर शेष तेरह प्रकृतियो को देखते हुए 'प्रकृतियों के' इस प्रकार बहुबचन निर्देश बन जाता है ।
इस स्पर्धकसे लेकर आगे बिना प्रतिषेधके सर्वघाती पर्यन्त है ऐसा कहनेपर उससे लतारूप जघन्य स्पर्धकसे लेकर आगे लतारूप, दारूप, अस्थिरूप और शैलरूप सब स्पर्धकोंका व्याप्त करके इन तेरह प्रकृतियोंका अनुभागसत्कर्म है ऐसा लेना चाहिये ।
शंका- आगे सर्वघाती है ऐसा कहनेसे दारुरूप देशघाती स्पर्धकों को छोड़कर, सर्वघाती दारुरूप स्पर्धा कोंके साथ अस्थिरूप और शैलरूप स्पर्धकोंका भी ग्रहण करते हैं यह कैसे जाना जाता है ?
समाधान- आगे स्थानसंज्ञाका कथन करते समय 'चार संज्वलनोंका अनुभागसत्कर्म एकस्थानिक, द्विस्थानिक, त्रिस्थानिक और चतुः स्थानिक होता है', इस सूत्र से जाना जाता है कि यहाँ सर्वघाती दारूसमान स्पर्धकोंके साथ अस्थि और शैलसमान स्पर्धकोंका भी ग्रहण किया है । यहाँ यद्यपि ऐसा कहा है कि मिध्यात्व आदि सब कर्मोंके स्पर्धक आगे बिना प्रतिषेधके हैं तो भी उन सबके अन्तिम स्पर्धक समान नहीं हैं ।
शंका- यह कैसे जाना जाता है कि मिध्यात्व आदि सब कर्मो के अन्तिम स्पर्धक समान
नहीं हैं ?
१३३
समाधान - महाबन्ध नामक सूत्रग्रन्थसे सिद्ध अल्पबहुत्वसे जाना जाता है । यथामिध्यात्वके उत्कृष्टस्थान शैलसमान अन्तिम स्पर्धकसे अनन्तानुबन्धी लोभका अन्तिम अनुभाग
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
.
www.jainelibrary.org