Book Title: Kasaypahudam Part 05
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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गा० २२ ]
भागविहत्तीए फय परूवणा
१३१
सम्पत्तेर्हितो जंच्चंतरभावेणुप्पण्णे सम्मामिच्छत्ते सम्मत्त-मिच्छत्ताणमत्थित्त विरोहादो । * मिच्छत्तस्स अणुभागसंतकम्मं जम्मि सम्मामिच्छत्तस्स अणुभागसंतकम्मं सिद्धिदं तदो अतरफद्दयमाढत्ता उवरि अप्पडिसिद्ध ।
१६३. जम्मि उह से दारुअसमाणस्स अनंतिमभागे सम्मामिच्छत्तस्स अणुभागसंतकम्मं णिहिदं तत्थ सम्मामिच्छत्तस्स सव्वघादिकस्सफद्दयं होदि । तदो अनंतरमुवरिममिच्छत्तजहण्णफद्दयं सम्मामिच्छत्तुकस्सफद्दयादो अनंतगुणं तमादत्ता तमादि काण उवरि अप्पडिसिद्ध मिच्छत्ताणुभागसंतकम्मं होदि । सम्मामिच्छत्तस्स उक्कस्सफद्दयादो अनंतगुणमिच्छत्तजहण्णफद्दयमादि काढूण उवरि पडिसेहेण विणा दारुअसमाणाणुभागस्स अणंते भागे अडिसमाण- सेलसमाणद्वाणाणं सयलफद्दयाणि च गंतूण मिच्छत्ताणुभागसंतकम्ममवहिदं ति भणिदं होदि ।
समाधान-क्योंकि वे सम्पूर्ण सम्यक्त्वका घात करते हैं । सम्यग्मिध्यात्वके उदय में सम्यक्त्वकी गंध भी नहीं रहती, क्योंकि मिध्यात्व और सम्यक्त्वकी अपेक्षा जात्यन्तर रूप से उत्पन्न हुए सम्यग्मिथ्यात्व में सम्यक्त्व और मिथ्यात्व के अस्तित्वका विरोध है । अर्थात् उस समय न सम्यक्त्व ही रहता है और न मिध्यात्व ही रहता है, किन्तु मिला हुआ दही-गुड़के समान एक विचित्र ही मिश्रभाव रहता है ।
विशेषार्थ - सम्यक्त्वप्रकृतिके उत्कृष्ट देशघाती स्पर्धक के अन्तरवर्ती जघन्य सर्वघाती स्पर्धक से लेकर दारुके अनन्तवें भाग तक सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिके स्पर्धक होते हैं, क्योंकि यह प्रकृति जात्यन्तर सर्वघाती है। इसका उदय रहते हुए न तो सम्यक्त्वरूप ही परिणाम होते हैं और न मिध्यात्वरूप ही परिणाम होते हैं, किन्तु मिश्ररूप परिणाम होते हैं ।
* जिस स्थानमें सम्यग्मिथ्यात्वका अनुभाग सत्कर्म समाप्त हुआ उसके अनन्तरवर्ती स्पर्धकसे लेकर आगे विना प्रतिषेधके मिथ्यात्वसत्कर्म होता है
$ १९३. दारुरूप अनुभाग के अनन्तवें भागरूप जिस स्थान में सम्यग्मिध्यात्वका अनुभाग सत्कर्म समाप्त हुआ है उस स्थानमें सम्यग्मिथ्यात्वका सर्वघाती उत्कृष्ट स्पर्धक होता है और उससे ऊपर आगेका अनन्तरवर्ती स्पर्धक मिध्यात्वका जघन्य स्पर्धक है जो सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट स्पर्धक अनन्तगुणी शक्तिवाला है। उससे लेकर आगे बिना किसी रुकावटके मिध्यात्वका अनुभागसत्कर्म होता है। आशय यह है कि सन्यग्मिथ्यात्व के उत्कृष्ट स्पर्धकसे मिथ्यात्वका जघन्य स्पर्द्धक अनन्तगुणा है । उस स्पर्धकसे लेकर आगे बिना किसी रुकावटके अर्थात् दारु समान अनुभागका अनन्त बहुभाग तथा अस्थिरूप और शैलरुप स्थानोंके समस्त स्पर्धकोंको व्याप्त करके मिथ्यात्वका अनुभागसत्कर्म स्थित है । अर्थात् सम्यग्मिथ्यात्व के उत्कृष्ट स्पर्धकसे लेकर शैल समान अनुभागके चरम स्पर्धक पर्यन्त सब स्पर्धक मिध्यात्वके हैं ।
विशेषार्थ - दारुके जिस भाग तक सम्यग्मिध्यात्त्र प्रकृतिके स्पर्धक बतलाये हैं उससे अन्नन्तरवर्ती स्पर्धकसे लेकर आगे सब स्पर्धक मिध्यात्व प्रकृतिके होते हैं । अर्थात् दारुका वशिष्ट सब भाग, अस्थिरूप और शैलरूप सब स्पर्धक मिध्यात्वप्रकृतिके होते हैं ।
१. श्रा प्रतौ जच्चंतरभाणुवेप्पणो इति पाठः ।
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