Book Title: Kasaypahudam Part 05
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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गा० २२ ] अणुभागविहत्तीए वड्डीए अप्पाबहुअं
१२५ जीवा संखे०गुणा । एवं सव्वणेरइय-सव्वतिरिक्ख-मणुस्स-मणुस्सअपज्ज०--देव जाव सहस्सारो त्ति । मणुस्सपज्ज०-मणुस्सिणीसु एवं चेव । णवरि जम्हि असंखेज्जगुणं तम्हि संखेज्जगुणं कायव्वं । आणदादि जाव अवराइदो त्ति सव्वत्थोवा अणंतगुणहाणिवि. जीवा । अवद्विदवि० जीवा असंखे०गुणा । एवं सव्व । णवरि संखेजगुणं कायव्वं । एवं जाणिदूण णेयव्वं जाव अणाहारि त्ति ।
एवं वढिविहत्ती समत्ता। १८६. ठाणपरूवणाए तिण्णि अणियोगद्दाराणि-परूवणा पमाणमप्पाबहुअं चेदि। तत्थ परूवणावुच्चदे। तं जहा-एत्थ अणुभागहाणाणि बंधसमुप्पत्तिय-हदसमुप्पत्तियहदहदसमुप्पत्तियअणुभागहाणभेदेण तिविहाणि होति। तेसिं तिविहाणं पिअणुभागहाणाणं जं लक्षणपदुप्पायणं सा परूवणा णाम । तत्थ हदसमुप्पत्तियं कादूणच्छिदसुहमणिगोदजहण्णाणुभागसंतहाणसमाणबंधहाणमादि कादण जाव सण्णिपंचिंदियपज्जत्तसव्वुक्कस्साणुभागबंधहाणे त्ति ताव एदाणि असंखे०लोगमेत्तछहाणाणि बंधसमुप्पत्तियहाणाणि ति भण्णंति, बंधेण समुप्पण्णतादो । अणुभागसंतहाणघादेण जमुप्पण्णमणुभागसंतहाणं तं पि एत्थ बंधहाणमिदि घेत्तव्वं, बंधहाणसमाणत्तादो ! पुणो एदेसिमसंखे०लोगमेत्तछट्टाणाणं मज्झे अणंतगुणवडि-अणंतगुणहाणिअकुव्वंकाणं विच्चालेसु असंखे०लोगजीव संख्यातगुणे हैं। इसी प्रकार सब नारकी, सब तिर्यञ्च, सामान्य मनुष्य, मनुष्य अपर्याप्त, सामान्य देव और सहस्रार स्वर्ग तकके देवोंमें जानना चाहिए । मनुष्य पयाप्त और मनुष्यनियोंम इसी प्रकार जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि जिस विभक्तिमें असंख्यातगुणा कहा है उसमें संख्यातगणा कर लेना चाहिये । आनतसे लेकर अपराजित विमान तकके देवोंमें अनन्त गुणहानि विभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं। अवस्थितविभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं । इसी प्रकार सार्थसिद्धिमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि उसमें संख्यातगणा कर लेना चाहिये । इस प्रकार जानकर अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिये।
इस प्रकार वृद्धिविभक्ति समाप्त हुई। 5 १८६. स्थान प्ररूपणामें तीन अनुयोगद्वार हैं- प्ररूपणा, प्रमाण और अल्प बहुत्व । उनमेंसे प्ररूपणाको कहते हैं। वह इस प्रकार है-इस प्रकरणमें बन्धसमुत्पत्तिक, हतसमुत्पत्तिक और हतहतसमुत्पत्तिकके भेदसे अनुभागस्थान तीन प्रकारके होते हैं। इन तीनों ही प्रकारके अनुभागस्थानोंका जो लक्षण कहना सो प्ररूपणा है। उनमेंसे हतसमुत्पत्तिकसत्कर्मको करके स्थित हुए सूक्ष्म निगोदिया जीवके जघन्य अनुभागसत्त्वस्थानके समान बन्धस्थानसे लेकर संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तकके सर्वोत्कृष्ट अनुभागबन्धस्थान पर्यन्त जो असंख्यात लोकप्रमाण षट्स्थान हैं उन्हें बन्धसमुत्पत्तिकस्थान कहते हैं, क्योंकि वे स्थान बन्ध से उत्पन्न होते हैं । अनुभागसत्त्वस्थानके घातसे जो अनुभागसत्त्वस्थान उत्पन्न होते हैं उन्हें भी यहां बन्धस्थान ही मानना चाहिये, क्योंकि वे बन्धस्थानके समान हैं। आशय यह है कि सूक्ष्म निगोदिया जीवसे लेकर संज्ञी पञ्चन्द्रिय पयाप्त जीव पर्यन्त छ प्रकार की हानि-वृद्धियों को लिये हुए जो अनुभागबन्धस्थान होते हैं वे बन्धसमुत्पतिक
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