Book Title: Kasaypahudam Part 05
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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गा० २२ ]
अणुभागविहत्तीए खेत्तं वणप्फदि--सुहुमवणप्फदिपज्जत्तापज्जत--बादरवणप्फदिपत्तेय-बादरवणप्फदिपत्तेयसरीरअपज्ज०-णिगोद०-बादरणिगोद०-बादरणिगोदपज्जत्तापज्जत्त-सुहुमणिगोद-मुहमणिगोदपज्जत्तापज्जत्त-कायजोगि०-ओरालिय०-ओरालियमिस्स०-कम्मइय०--णवूस०-चत्तारिकसाय-मदिअण्णाण.--सुदअण्णा०--असंजद-अचक्खु०--किण्ह-णील-काउ०-भवसि०अभवसि०-मिच्छादिहि०-असएिण-आहारि०-अणाहारि त्ति ।
६६. सेसमग्गणासु उकस्साणुक्कस्सअणुभागविहत्तिया जीवा लोग० असंखे०भागे। णवरि बादरवा उपज्जत्तएसु उक्कस्साणुभागविहत्तिया जीवा लोगस्स असंखे० भागे । अणुक्क अणुभाग. जीवा लोग० संखे०भागे।।
एवमुक्कस्साणुभागखेत्ताणुगमो समत्तो। $ १००. जहएणए पयदं । दुविहो णिद्दे सो-ओघे० आदेसे० । ओघेण मोह० जहणणाणुभागविहत्तिया केवडि खेत्ते ? लोगस्स असंखे०भागे। अज० सव्ववनस्पतिकायिक, बादर वनस्पतिकायिक, बादर वनस्पतिकायिक पर्याप्त, बादर वनस्पतिकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक अपर्याप्त, बादर वनस्पतिप्रत्येकशरीर, बादर वनस्पति प्रत्येकशरीर अपर्याप्त, निगोदिया, बादर निगोदिया, बादर निगोदिया पर्याप्त, बादर निगोदिया अपर्याप्त, सूक्ष्म निगोदिया, सूक्ष्म निगोदिया पर्याप्त, सूक्ष्म निगोदिया अपर्याप्त, काययोगी, औदारिककाययोगी, औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, नपुंसकवेदी, क्रोधी, मानी, मायावी, लोभी, मतिअज्ञानी, श्रुतअज्ञानी, असंयत, अचक्षुदर्शनवाले, कृष्ण, नील और कापोत लेश्यावाले, भव्य, अभव्य, मिथ्यादृष्टि, असंज्ञी, आहारी और अनाहारियोंमें जानना चाहिए।
९ ९९. शेष मार्गणाओंमे उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले जीवोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। इतनी विशेषता है कि बादर वायुकायिक पर्याप्तकोंमें उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले जीवोंका क्षेत्र लोकका असंख्यातवां भाग है और अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवालोंका क्षेत्र लोकका संख्यातवां भाग है।
विशेषार्थ-वर्तमानमें उत्कृष्ट अनुभागवाले जीव लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रमें ही पाये जाते हैं, क्योंकि संज्ञी पञ्चन्द्रिय पर्याप्त मिथ्यादृष्टि जीव ही मोहका उत्कृष्ट अनभागबन्ध करते हैं। और घात किये बिना इनके अन्य इन्द्रियवालोंमें उत्पन्न होने पर वहाँ उत्कृष्ट अनुभाग देखा जाता है, इसलिये ओघसे इनका क्षेत्र लोकका असंख्यातवां भाग है और अनत्कृष्ट
वालोंका क्षेत्र सर्वलोक है यह स्पष्ट ही है। इसी प्रकार आदेशसे जिन जीवोंका क्षेत्र सर्व लोक है उनमें ओघकी ही तरह क्षेत्र होता है। शेष मार्गणाओंमें दोनों ही अनुभागवालोंका क्षेत्र लोकका असंख्यातवाँ भाग है। केवल बादर वायुकायिकपर्याप्तकोंमें उत्कृष्ट अनुभागवालोंका क्षेत्र लोकका असंख्यातवाँ भाग है और अनुत्कृष्ट अनुभागवालोंका क्षेत्र लोकका संख्यातवाँ भाग है, क्योंकि ये जीव लोकके संख्यातवें भाग क्षेत्रमें रहते हैं।
इस प्रकार उत्कृष्टानुभाग क्षेत्रानुगम समाप्त हुआ। 5 १००. अब प्रकृतमें जघन्यसे प्रयोजन है । निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मोहनीयकर्मके जघन्य अनुभागविभक्तिवाले जीवोंका कितना क्षेत्र है ? लोकके असंख्या
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