Book Title: Kasaypahudam Part 05
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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जयधषलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ १४६. देवेसु भुज० ज० एगस०, उक्क० अंतोमु० । अप्पदर० जहण्णुक० एगस०। अवहि० ज० एगस०, उक० तेत्तीसं सागरोवमाणि संपुण्णाणि । एवं भवणादि जाव सहस्सारो ति । णवरि सगहिदी भाणिदव्वा । आणदादि जाव सव्वट्ठसिद्धि त्ति अप्पदर० जहण्णुक्क० एगस० । अवहि० ज० अंतोमु०, उक. सगहिदी । एवं चिंतिय णेदव्वं जाव अणाहारि ति ।।
एवं कालाणुगमो समत्तो । विशेषार्थ-कोई मिथ्यादृष्टि तिर्यश्च देवकुरु-उत्तरकुरुमें जन्म लेकर और तीन पल्य तक रहकर मरकर देव होगया। उसके अवस्थितविभक्तिका उत्कृष्ट काल कुछ अधिक तीन पल्य होता है, क्योंकि भोगभूमिमें उत्पन्न होनेवाले जीवके जन्म लेनेके कुछ समय पहलेसे उत्कृष्ट अनुभागका घात होकर अवस्थितपना सम्भव है। अपर्याप्तकके सिवा तीनों प्रकारके मनुष्योंमें अल्पतर विभक्तिका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है, क्योंकि यहाँ क्षपकश्रेणि होनेसे अनुभागका प्रतिसमय घात होना संभव है । तथा अवस्थितविभक्तिका उत्कृष्ट काल पूर्वकोटिका त्रिभाग अधिक तीन पल्य है, क्योंकि कोई मिथ्यादृष्टि मनुष्य एक पूर्वकोटिका त्रिभाग शेष रहने पर मनुष्यायुका बन्ध करके, सम्यक्त्वको ग्रहण करके, दर्शनमोहनीयका क्षपण करके, सम्यक्त्वके साथ पूर्वको टका देशोन त्रिभाग विताकर उत्तरकुरुमें मरकर मनुष्य हुआ और वहाँ तीन पल्य तक रहकर मरकर देव होगया, तो उस मनुष्यके अवस्थितविभक्तिका उत्कृष्ट काल पूर्वोक्त होता है। किन्तु मनुष्यिनीके अन्तुर्मुहूर्त अधिक तीन पल्य काल होता है जैसा कि तिर्यञ्चमें बतलाया है। शेष कथन सुगम है।
१४६. देवोंमें भुजगारविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है। अल्पतरविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अवस्थितविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल सम्पूर्ण तेतीस सागर है। इसी प्रकार भवनवासीसे लेकर सहस्रार स्वर्ग पर्यन्त जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि उत्कृष्ट काल अपनी अपनी स्थिति प्रमाण कहना चाहिये। आनत स्वर्गसे लेकर सर्वार्थसिद्धि पर्यन्त अल्पतरविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अवस्थितविभक्तिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी स्थिति प्रमाण है। इस प्रकार विचार करके इस कालको अनाहारी पर्यन्त ले जाना चहिये।
विशेषार्थ-सामान्य देवोंमें अवस्थितविभक्तिका उत्कृष्ट काल सम्पूर्ण तेतीस सागर होता है, क्योंकि सर्वार्थसिद्धिकी उत्कृष्ट स्थिति तेतीस सागर है। आनतादिकमें तथा ऊपरके विमानोंमें भुजगारविभक्ति नहीं होती। अल्पतरविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय होता है तथा अवस्थितविभक्तिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी स्थितिप्रमाण होता है। यहाँ आनतादिकमें काण्डकघात करने पर उसके अन्तमें अल्पतरविभक्ति प्राप्त होती है, इसलिए उसका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है। तथा काण्डकघातके समय अवस्थितविभक्तिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त प्राप्त होता है, इसलिए इसका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त कहा है। और देवोंके जीवन भर क्रिया रहित होने पर अवस्थितविभक्तिका उत्कृष्ट काल प्राप्त होता है, इसलिए इसका उत्कृष्ट काल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण कहा है। अन्य मार्गणाओंमें इसी प्रकार अर्थात् गतिमार्गणाके अनुसार विचार कर काल घटित कर लेना चाहिए।
इस प्रकार कालानुगम समाप्त हुआ। .. . .
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