Book Title: Kasaypahudam Part 05
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ $ १७४. अंतराणु० दुविहो णिसो-ओघेण आदेसेण । ओघेण मोह० पंचवडि-पंचहाणीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? जह० एगस० अंतोमु०, उक्क० असं
खेज्जा लोगा। अणंतगुणवडीए अंतरं ज० एगस०, उक्क० तेवहिसागरोवमसदं तीहि पलिदोवमेहि सादिरेयं । अणंतगुणहाणीए अंतरं केव० ? जह० अंतोमु०, उक्क० तेवहिसागरोवमसदं पलिदो० असंखे०भागेण सादिरेयं । अवहि० ज० एगस०, उक्क० अंतोमु०।
१७५. आदेसेण णेरइएसु छवडि-हाणीणमंतर केव० ? ज० एगसमओ अतोमु०, उक्क० तेत्तीसं सागरो० देसूणाणि । अवहि० ज० एगस०, उक्क० अंतोमु० । एवं सव्वणेरइयाणं । णवरि सगहिदी देसूणा । तिरिक्खेसु पंचवडि-पंचहाणीणमंतरं काल जान लेना चाहिए। आगे अनाहारक मार्गणा तक इसी प्रकार कालका विचार कर लेना चाहिए।
इस प्रकार कालानुगम समाप्त हुआ। 5 १७४. अन्तरानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे मोहनीयकी पाँचों वृद्धियों और पाँचों हानियोंका अन्तरकाल कितना है ? वृद्धियोंका जघन्य अन्तर एक समय और हानियोंका अन्तर्मुहूर्त है। तथा दोनोंका उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण है। अनन्तगुणवृद्धि का जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर तीन पल्य अधिक एक सौ त्रेसठ सागर है । अनन्तगुणहानिका अन्तरकाल कितना है। जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर पल्यका असंख्यातवां भाग अधिक एक सौ त्रेसठ सागर है । अवस्थानका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है।
विशेषार्थ ओघसे पाचो वृद्धियोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और पाचों हानियों का अन्तमुहूर्त है, क्योकि अनुभागकी हानि जिन परिणामोंसे होती है वे परिणाम तुरन्त ही नहीं होजाते। तथा दोनोंका उत्कृष्ट अन्तरकाल असंख्यात लोक है; क्योंकि इतने कालके लिये सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्यायमें चले जाने पर उक्त वृद्धियाँ हानियाँ वहाँ नहीं होती। अनन्तगुणवृद्धिका जघन्य अन्तरकाल एक समय होता है और उत्कृष्ट अन्तरकाल तीन पल्य अधिक एक सौ त्रेसठ सागर है, क्योंकि तीन पल्यके लिये भोगभूमिमे, बीचमे सम्यमिथ्यात्वके साथ रहकर छियासठ छियासठ सागर तक दो बार वेदकसम्यक्त्वमें और अन्तमे ३१ सागरके लिये ग्रैवेयकमें चले जाने पर उतने काल तक अनन्तगुणवृद्धि नहीं हो यह सम्भव है । अनन्तगुणहानिका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तरकाल पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक एक सौ त्रेसठ सागर होता है। अधिकसे अधिक उतने काल तक अवस्थितविभक्तिके हो जानेसे अनन्तगुणहानिमें अन्तर पड़ जाता है। अवस्थितका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर पूर्ववत् जानना चाहिए।
१७५. आदेशसे नारकियोंमें छ वृद्धियों और छ हानियोंका अन्तर काल कितना है ? वृद्धियोंका जघन्य अन्तर एक समय तथा हानियोंका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और सबका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है। अवस्थानका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। इसी प्रकार सब नारकियोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि उत्कृष्ट अन्तर काल कुछ कम अपनी अपनी स्थितिप्रमाण है। तिर्यञ्चोंमें पाँच वृद्धियों और
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