Book Title: Kasaypahudam Part 05
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ अणुभागविहन्ती ४
$ १६८. जहणए पदं । दुविहो णिद्द सो— श्रघेण आदेसेण । श्रघेण मोह० जहण्णिया वडी हाणी अवद्वाणं च तिष्णि वि सरिसाणि । एवं चदुसु गदीसु । णवरि आणदादि जाव सव्वहसिद्धि त्ति जहणिया हाणी अवद्वाणं च दो वि सरिसाणि । एवं जाणिदूण दव्वं जाव अणाहारि ति ।
एवं पदणिक्खेवोत्ति समत्तमणिओगद्दारं ।
११२
वित्ती
$ १६६. वडिविहत्तीए तत्थ इमाणि तेरस अणियोगद्दाराणि - समुत्तिणादि जाव अप्पा हुए ति । का बढी नाम ? पदणिक्खेवविसेसो | ण पुणरुत्तदा, सामण्णादो विसेसस्स सव्वत्थ पुधत्तुवलंभादो' ।
$ १६८. जघन्यसे प्रयोजन है । निर्देश दो प्रकारका है - ओघ और आदेश । श्रघसे मोहनी की जघन्य वृद्धि, जघन्य हानि और जघन्य अवस्थान तीनों समान हैं । इसी प्रकार चारों गतियों में जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि आनत स्वर्गसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तक के देवोंमें जघन्य हानि और अवस्थान दोनों समान हैं। इस प्रकार जानकर अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिये ।
विशेषार्थ-ओघसे जीवके जितनी जघन्य वृद्धि होती है उतनी ही जघन्य हानि भी होती है अतः तीनोंका परिमारण समान कहा है, कमती बढ़ती नहीं कहा है। इसी प्रकार चारों गतियोंमें भी जानना चाहिए । किन्तु आनतादिकमें वृद्धि नहीं होती, अतः वहां हानि और अवस्थानका प्रमाण समान कहा
है
इस प्रकार पदनिक्षेप अनुयोगद्वार समाप्त हुआ ।
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वृद्धिविभक्ति
$ १६९. अब वृद्धिविभक्तिका कथन करते हैं । उसमें समु कीर्तनासे लेकर अल्पबहुत्वपर्यन्त तेरह अनुयोगद्वार होते हैं। शङ्का - वृद्धि किसे कहते हैं ।
समाधान-पदनिक्षेप विशेषको वृद्धि कहते हैं । ऐसा होने पर भी वृद्धिका कथन करनेमें पुनरुक्त दोषकी आशङ्का नहीं करनी चाहिये, क्योंकि सर्वत्र सामान्य कथनसे विशेष कथन पृथक् उपलब्ध होता है।
विशेषार्थ - जैसे भुजगारविभक्तिका ही एक विशेष पदनिक्षेप है, वैसे ही पदनिक्षेपका एक विशेष वृद्धिविभक्ति है । पदनिक्षेपमें मोहनीय के अनुभागसत्त्वमें उत्कृष्ट और जघन्य वृद्धि, उत्कृष्ट और जघन्य हानि तथा उत्कृष्ट और जघन्य अवस्थानका कथन किया है । किन्तु वृद्धिविभक्ति में छ प्रकारकी वृद्धि, छ प्रकारकी हानि और अवस्थानका कथन किया है । सारांश यह है कि पद निक्षेपमें वृद्धि आदिका सामान्य रूपसे कथन है और वृद्धिविभक्तिमें वृद्धि और हानिके छ छ भेदों
१. प्रा० प्रतौ सम्वस्थ पुव्युत्त वलंभादो इति पाठः ।
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