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गा० २२]
अणुभागविहत्तीए पदणिक्खेवो १६०. भावाणु० सव्वत्थ ओदइओ भावो।..
एवं भावाणुगमो समतो।। १६१. अप्पाबहुगाणु० दुविहो गिद्दे सो-ओघेण आदेसेण । तत्थ ओघेण सव्वत्थोवा अप्पदरविहत्तिया जीका। भुजविहत्ति० असंखे गुणा । अवहि वि० संखे०गुणा । एवं चदुसु वि गदीसु । णवरि मणुसपज्जत्त-मणुसिणीसु संखेजगुणं कायव्वं । आणदादि जाव अवराइदं ति सव्वत्थोवा अप्पदरविहत्तिया । अवहि० असंखे गुणा । सव्व सव्वत्थोवा मोह० अप्पदरविहत्तिया। अवहिदवि० संखे गुणा । एवं जाणिद्ण णेदव्वं जाव अणाहारि त्ति ।
एवं भुजगाराणुगमो समत्तो। .
पदणिक्खेवो .. १६२. पदणिक्खेवे ति तत्थ इमाणि [ तिण्णि ] अणिओगद्दाराणिसमुक्तित्तणा सामित्तमप्पाबहुअं चेदि । को पदणिक्खेदो ? भुजगारविसेसो। ण च पुणरुत्तदा, जहण्णुक्कस्सवड्डि-हाणि-अवहाणेसु पडिबद्धत्तादो।। १६०. भावानुगमकी अपेक्षा सर्वत्र औदयिक भाव है।
. इस प्रकार भावानुगम समाप्त हुआ। ६१६१. अल्पबहुत्वानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और श्रादेश । उनमेंसे ओघसे अल्पतरविभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े है। भुजगारविभक्तिवाले उनसे असंख्यातगुणे हैं। अवस्थितविभक्तिवाले उनसे संख्यातगुणे हैं। इसीप्रकार चारों ही गतियोंमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि मनुष्यपर्याप्त और मनुष्यनियोंमें असंख्यातगुणे के स्थानमें संख्यातगुणा करना चाहिये । आनतसे लेकर अपराजित विमान तकके देवोंमें अल्पतरविभक्तिवाले सबसे थोड़े हैं। उनसेअवस्थितविभक्तिवाले असंख्यातगुणे हैं। सर्वार्थसिद्धिमें मोहनीयके अल्पतरविभक्तिवाले सबसे थोड़े हैं। अवस्थितविभक्तिवाले उनसे संख्यातगुणे हैं। इसप्रकार अल्पबहुत्वको जानकर उसे अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिये।
इस प्रकार भुजगारानुगम समाप्त हुआ।
पदनिक्षेप ६.१६२. अब पदनिक्षेपका कथन करते हैं। उसमें ये अनुयोगद्वार हैं-समुत्कीर्तना, स्वामित्व और अल्पबहुत्व।
शंका-पदनिक्षेप किसे कहते हैं ? समाधान-भुजगार विशेषको पदनिक्षेप कहते हैं।
यदि कहा जाय कि जब पदनिक्षेप भुजगारका ही एक विशेष है तो उसके कथन करनेसे पुनरुक्त दोष आता है, क्योंकि भुजगारका कथन पीछे कर आये हैं। किन्तु ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि पदनिक्षेपमें जघन्य और उत्कृष्ट वृद्धि, हानि और अवस्थानका कथन किया जाता है, अतः पुनरुक्त दोष नहीं है।...
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