Book Title: Kasaypahudam Part 05
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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गा० २२ ]
अणुभागवित्तीए कालो
१२०, संजदासंजद० ज० लोग० असंखे ० भागो । अजह० लोग० असंखे० भागो चोदस० देसूणा । तेउ ०- पम्म० सोहम्म० - सहस्सोरभंगो । सासण० जह० खेत्तं । अजह० अणुक्कस्सभंगो |
एवं पोसणाणुगमो समत्तो ।
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१२१. कोलाणुगमो दुवि हो - जहण्णओ उक्कस्सओ चेदि । उक्कस्से पयदं । दुत्रिहो णिद्द सो – ओघे० आदेसे ० । तत्थ ओघेण मोह० उक्कस्साणु० ज० अंतोमु०, उक्क० पलिदो ० असंखे० भागो । अणुक्क० सव्वद्धा ।
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है, इसलिये इनमें जघन्य अनुभागवालों का स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है तथा आभिनिबोधिकज्ञानी आदिका जो स्पर्शन है वही यहाँ अजघन्य अनुभाग वालो का प्राप्त होनेसे वह उक्तप्रमाण कहा है। यहाँ अवधिदर्शनी आदि अन्य जो मार्गणाऐं गिनाई हैं उनमें यह स्पर्शन बन जाता है, अत: उनका भङ्ग अभिनिबोधिकज्ञानी आदिके समान कहा है । मात्र शुक्ललेश्यामे कुछ कम आठ बटे चौदह राजुप्रमाण स्पर्शन नहीं प्राप्त होता, अतः उसका निर्देश विशेष रूपसे किया है ।
$ १२०. संयतासंयतो मे' जघन्य अनुभागविभक्तिवालो ने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अजघन्य विभक्तिवालों ने लोकके असंख्यातवें भाग और चौदह भागो मे से कुछ कम छह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। तेजोलेश्यामे' सौधर्म स्वर्गके समान और पद्मलेश्या सहस्रार के समान भङ्ग है । सासादनसम्यग्दृष्टियों में जघन्य अनुभागविभक्तिवालोंका स्पर्शन क्षेत्र के समान है । तथा अजघन्य अनुभागविभक्तिवालों का स्पर्शन अनुसृष्ट विभक्तिवालोंके समान है ।
विशेषार्थ - संयतासंयतो 'मे' जो दो बार उपशमश्रेण पर चढ़कर और उत्तर कर संयतासंयत हुए हैं उनके जघन्य अनुभाग होता है, इसलिए इनके जघन्य अनुभागवालों का स्पर्शन लोके श्रसंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। तथा संयतासंयतो का जो स्पर्शन है वह यहाँ जघन्य अनुभावालो का बन जाता है, अतः वह उक्तप्रमाण कहा है। पीत और पद्मलेश्या में सौधर्म और सहस्रार कल्पके समान स्पर्शन है यह स्पष्ट ही है । सासादनसम्यग्दृष्टियों में दो बार उपशम श्रेणि पर चढ़कर उतरे हुए जीवके जघन्य अनुभाग होता है, अतः यह क्षेत्रके समान कहा है और अनुत्कृष्टके समान इनके जघन्य अनुभागवालों का स्पर्शन बन जाता है अतः वह अनुत्कृष्ट के समान कहा है।
इस प्रकार स्पर्शनानुगम समाप्त हुआ ।
६ १२१. कालानुगम दो प्रकारका है - जघन्य और उत्कृष्ट । यहाँ उत्कृष्टसे प्रयोजन है । निर्देश दो प्रकारका है - ओघ निर्देश और आदेशनिर्देश । उनमें से ओघसे मोहनीय कर्मकी उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल पल्योपमके असंख्यातवें भाग है । अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्ति का काल सर्वदा है ।
विशेषार्थ- पहले मोहनीयकी उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त बतलाये हैं । यह सम्भव है कि कभी कुछ ही जीव एक साथ उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले हो और कभी मध्य में अन्तर पड़े बिना अनेक जीव उत्कृष्ट अनुभाग
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