Book Title: Kasaypahudam Part 05
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ अणुभागविहत्ती ४ पज्ज०-संजद०-सामाइय-छेदो०-परिहार०-सुहुमसांपराय०-जहाक्खाद०-संजदासंजद०चक्षु०-अचक्षु०--ओहिदंस०-सुक्कले०--भवसि०--सम्मादिहि-वेदग०-खइय०-उवसम०सासण-सम्मामि०-सण्णि-आहारि-अणाहारि त्ति ।
$ ८१. मदि-सुदअण्णाणीसु मोह० जहण्णाणु० ज० अंतोमु०, उक्क० असंखेज्जा लोगा । अज० जहण्णुक्क० अंतोमु० । विहंगणाणीसु मोह० जहण्णाजहण्णाणु० णत्थि अंतरं । असंजद० मोह० ज० ज० अंतोमु०, उक्क० असंखेज्जा लोगा। अज० जहण्णुक्क० अंतोमु० । किण्ह-णील-काउ०-तेउ०-पम्म० मोह० जहएणाजहएणाणु० णत्थि अंतरं। अभवसि० मोह० ज. ज. अंतोमु०, उक्क० असंखेजा लोगा। अज० जहण्णुक्क० अंतोमु० । एवं मिच्छादिहि-असण्णीणं ।
एवं जहण्णाणुभागअंतराणुगमों' समत्तो । संयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, सूक्ष्मसाम्परायसंयत, यथाख्यातसंयत, संयतासंयत, चक्षुदर्शनवाले, अचक्षुदर्शनवाले, अवधिदर्शनवाले, शुक्ललेश्यावाले, भव्य, सम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, संज्ञी, आहारी और अनाहारी जीवोंमें जानना चाहिये।
८१. मतिअज्ञानी और श्रुतअज्ञानियोंमें मोहनीय कर्मके जघन्य अनुभागका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोक है । अजघन्य अनुभागका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। विभंगज्ञानियोंमे मोहनीयकर्मकी जघन्य और अजघन्य अनुभाग विभक्तिका अन्तर नहीं है असंयतोंमें मोहनीयकर्मकी जघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोक है । अजघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । कृष्ण, नील, कापोत, तेज और पद्मलेश्याम मोहनीयकर्मकी जघन्य
और अजघन्य अनुभागविभक्तिका अन्तर नहीं है। अभव्योंमे मोहनीयकर्मकी जघन्य अनुभाग विभक्तिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोक है । अजघन्य अनुभाग विभक्तिवालोंका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। इसी प्रकार मिथ्यादृष्टि और असज्ञियोंमें भी जानना चाहिये।
विशेषार्थ-योगकी अपेक्षा मनोयोग, वचनयोग, काययोग और औदारिककाययोगवालोंके क्षपक दसवें गुणस्थानके अन्तिम समयमे जघन्य अनुभाग होता है अतः अन्तर नहीं कहा है। वैक्रियिककाययोगमे सौधर्मादिककी तरह अन्तर नहीं है । वैक्रियिकमिश्रमे नरकमें जन्म लेने वाले हतसमुत्पतिककर्मा असंज्ञी पञ्चेन्द्रियकी अपेक्षा जघन्य अनुभाग होता है अत: उसमें भी अन्तर नहीं है । आहारक और आहारकमिश्रमे दुवारा उपशमश्रेणि पर चढ़कर, उससे उतर कर दर्शनमोहनीयका क्षपण करके जो आहारककी उत्पादना करता है उसके जघन्य अनुभाग होता है अत: उनमे भी अन्तर नहीं प्राप्त होता। कार्मणका काल थोड़ा है, अत: उसमें भी अन्तरकी संभावना नहीं है। अपने अपने योग्य इसी प्रकारके कारणोंसे शेष मार्गणाओंमें अन्तरका अभाव लगा लेना चाहिये। केवल औदारिकमिश्र, मतिअज्ञानी, श्रुतअज्ञानी, असंयमी, अभव्य, मिथ्यादृष्टि और असंज्ञीमे अन्तरकाल होता है जो एकेन्द्रियकी तरह लगा लेना चाहिये।
__ इस प्रकार जघन्य अनुभागका अन्तरानुगम समाप्त हुआ। १. ता० प्रतौ जहण्णाजहएणाणुभागअंतराणुगमो इति पाठः ।
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