Book Title: Kasaypahudam Part 05
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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अणुभागविहत्तीए णाणाजीवेहि भंगविचओ $ ८२. णाणाजीवेहि भंगविचओ दुविहो-जहण्णओ उक्कस्सो चेदि । उक्कस्से पयदं । दुविहो णिद्दे सो-ओघे० आदेसे० । तत्थ ओघेण मोह० उक्कस्साणुभागविहत्तीए सिया सव्वे जीवा अविहत्तिया १। सिया अविहत्तिया च विहत्तिो च २। सिया अविहत्तिया च विहत्तिया च ३। एवमणुक्कस्सं पि । णवरि विहत्तिपुव्वं भाणिदव्वा । एवं सव्वणेरइय-सव्वतिरिक्ख-मणुसतिय-देव०-भवणादि जाव सहस्सार त्ति । मणुसअपज्ज० उकस्साणुक्कस्साणुभागविहत्तियाणमह भंगा। आणदादि जाव सव्वहसिद्धि त्ति उक्कस्साणुक्कस्स० णियमा अत्थि।
८३. इंदियाणु० एइंदिय-बादर--सुहुम-पज्जत्तापज्जत्त-सव्वक्गिलिंदिय-सव्वपंचिंदिएम सिया सव्वे अणुकस्सविहत्तिया १। सिया अणुक्कस्सविहत्तिया च उक्कस्सविहत्तियो च २। सिया अणुक्कस्सविहत्तिया च उक्कस्सविहत्तिया च ३। एवं छकाय-पंचमण-पंचवचि०-ओरालिय०-ओरालियमिस्स०-वेउव्विय०-कम्मइय०-तिण्णिवेद०-चत्तारिकसाय०-तिण्णिअण्णाण-आभिणि-सुद०-ओहि०- असंजद०-चक्खु०अचक्खु०-ओहिदंस०-पंचले०-भवसि०-अभवसि०-सम्मादिहि-वेदग०-मिच्छादिहिसण्णि-असण्णि-आहारि-अणाहारि ति ।
६८२. नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय दा प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-प्रोघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमे से ओघकी अपेक्षा कदाचित् सब जीव मोहनीयकमका उत्कृष्ट अनुभागअविभक्तिवाले हैं १। कदाचित् अनेक जीव अविभक्तिवाले और एक जीव विभक्तिवाला होता है २ । कदाचित् अनेक जीव अविभक्तिवाले और अनेक जीव विभक्तिवाले होते हैं ३ । इसी प्रकार अनुत्कृष्ट में भी जानना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि विभक्तिको पहले रखकर कथन करना चाहिये । अर्थात् कदाचित् सब जीव मोहनीयकी अनुत्कृष्ट विभक्तिवाले हैं १। कदाचित् अनेक जीव अनुत्कृष्टविभक्तिवाले और एक जीव अविभक्तिवाला है २। कदाचित् अनेक जीव अनुत्कृष्टविभक्तिवाले और अनेक जीव अविभक्तिवाले हैं ३। इसी प्रकार सब नारकी, सब तिर्यञ्च, सामान्य मनुष्य, पर्याप्त मनुष्य, मनुष्यिनी, देव, और भवनवासीसे लेकर सहस्रार स्वर्गतकके देवोंमें जानना चाहिये। मनुष्य अपर्याप्तकोंमें उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिबालोंके आठ भंग होते हैं। आनत स्वर्गसे लेकर सर्वार्थसिद्धि पर्यन्त उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट विभक्तिवाले जीव नियमसे होते हैं। .
६८३. इन्द्रियकी अपेक्षा सामान्य एकेन्द्रिय और उनके बादर, सूक्ष्म, पर्याप्त और अपर्याप्त सब भेदोंमें तथा सब विकलेन्द्रियों और सब पञ्चन्द्रियोंमें कदाचित् सब जीव अनुत्कृष्ट विभक्तिवाले हैं १ । कदाचित् अनेक जीव अनुत्कृष्ट विभक्तिवाले और एक जीव उत्कृष्ट विभक्तिवाला है २ । कदाचित् अनेक जीव अनुत्कृष्ट विभक्तिवाले और अनेक जीव उत्कृष्ट विभक्तिवाले हैं ३ । इसी प्रकार छहों काय, पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, औदारिककाययोगी, औदारिकमिश्रकाययोगी, वैक्रियिककाययोगी, कार्मणकाययोगी, तीनों वेदवाले, चार कषायवाले, मतिअज्ञानी, श्रुतअज्ञानी, विभंगज्ञानी, आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी. अवधिज्ञानी, असंयत, चक्षुदर्शनवाले, अचक्षुदर्शनवाले, अवधिदर्शनवाले, शुक्ललेश्याके सिवाय शेष पाँचों लेश्यावाले, भव्य, अभव्य, सम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि, संज्ञी, असंज्ञी आहारी और अनाहारी
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