Book Title: Kasaypahudam Part 05
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ हिदी देमूणा । एवं जोदिसिय० । तिरिक्खेसु मोह० जहण्णाणु० ज० अंतोमु०, उक्क० असंखेज्जा' लोगा । अज० जहण्णुक्क० अंतोमु० । ___ ७७. इंदियाणु० एइंदिय०-सुहुमेइंदिय-सुहुमेइंदियअपज्जत्तएस मोह० जहण्णाणु० जह० अंतोमु०, उक्क. असंखेजा लोगा। णवरि अपज्जत्तएसु अंतोमु० । अज. जहण्णुक्क० अंतोमु० । सुहमेइंदियपज्ज०-बादरेइंदिय-बादरेइंदियपज्जत्तापज्जत्तसव्वविगलिंदिय-पज्जतापज्जत्त-पंचिंदियअपज्जत्तएमु मोह० जहण्णाजहण्णाणु० पत्थि अंतरं । पंचिंदिय-पंचिंदियपज्जत्तएमु मोह. जहण्णाजहण्णाणु० णत्थि अंतरं ।
७८. कायाणु० पुढवि० आउ०-तेउ० [वाउ०-] बादर-सुहुम-पज्जत्तापज्जत्तउत्कृष्ट स्थिति प्रमाण है। अजघन्य अनुभागका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण है। इसी प्रकार ज्योतिषी देवोंमें जानना चाहिये। तिर्यञ्चोंमें मोहनीय कर्मके जघन्य अनुभागका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोक प्रमाण है । अजघन्य अनुभागका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है।
विशषार्थ-दूसरे आदि नरकमें जन्म लेकर जो जीव सम्यग्दृष्टि होकर अनन्तानुबन्धी चतुष्कका क्षपण कर लेता है उसके जघन्य अनुभाग होता है। अन्तमुहूर्तके पश्चात् सम्यक्त्वसे च्युत होकर यदि वह जीव पुन: मिथ्यादृष्टि हो जाता है तो अजघन्य अनुभागका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त होता है। और अन्तमुहूर्त तक अजघन्य अनुभागवाला रहकर सम्यग्दृष्टि होकर यदि पुनः अनन्तानुबन्धीका विसंयोजन करके जघन्य अनुभागवाला हो जाता है तो जघन्य अनुभागका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त होता है। इसी प्रकार उत्कृष्ट अन्तर भी घटा लेना चाहिये। तिर्यञ्चोंमें कोई सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीव अजघन्य अनुभागका घात करके जघन्य अनुभागवाला हुआ। यतः उसके यह जघन्य अनुभाग अन्तमुहूर्तसे अधिक काल तक नहीं रहता, अतः अनुभागका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त कहा है। और यदि अन्तमुहूर्तके बाद उस अजघन्य अनुभागका घात करके पुन: जघन्य अनुभागवाला होजाता है तो जघन्य अनुभागका जघन्य अन्तर अन्तमुहूत होनेसे वह उक्त प्रमाण कहा है। तथा परिणामोंके अनुसार असंख्यात लोक कालका अन्तर प्राप्त होनेसे उत्कृष्ट अन्तर उक्त प्रमाण कहा है।
६ ७७. इन्द्रियकी अपेक्षा एजेन्द्रिय, सूक्ष्म एकेन्द्रिय और सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तकोंमे मोहनीय कर्मके जघन्य अनुभागविभक्तिवालोंका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोक प्रमाण है। इतनी विशेषता है कि अपर्याप्तकोंमे उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। तथा इन सबके अजघन्य अनुभागविभक्तिवालोंका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तक, बादर एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तक, बादर एजेन्द्रिय अपयाप्तक, समस्त विकलेन्द्रिय, समस्त विकलेन्द्रिय पर्याप्तक, समस्त विकलेन्द्रिय अपर्याप्तक और पंचेन्द्रिय अपयोप्तकोंमें मोहनीयकर्मके जघन्य और अजघन्य अनभागविभक्तिका अन्तर नहीं है। पंचेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय पर्याप्तकोंमें मोहनीयकर्मके जघन्य और अजघन्य अनुभागविभक्तिका अन्तर नहीं है।
६७८. कायकी अपेक्षा पृथिवीकाय, जलकाय, तेजकाय, वायुकाय तथा इनके बादर,
१. ता० प्रतौ संखेजा इति पाठः । २. ता. प्रतो तेउ० [वाउ०] बादर, श्रा० प्रतौ तेउ० बादर० हइति पाठः।
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