Book Title: Kasaypahudam Part 05
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ कोडी देसूणा । एवं सामाइय--छेदो०-परिहार०--संजदासंजदाणं । णवरि सामाइयछेदो० अणुक्क० ज० एगस० ।
३८. दंसणाणुवादेण चक्खुदंसणीसु मोह० उक्क० ज० एगस०, उक्क० अंतोमु० । अणुक० ज० एगस०, उक्क० वेसागरोवमसहस्साणि । ओहिदंसणी० ओहिणाणिभंगो।
६ ३६. लेस्साणुवादेण किण्ह-णील-काउ० मोह० अणुक० जह० एगस०, उक्क० तेत्तीस-सत्तारस-सत्तसागरो० सादिरेयाणि । तेउ०-पम्म० मोह० उक्क० जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमु० । अणुक्क० ज० एगस०, उक्क० वे-अहारससागरोवमाणि सादिरेयाणि । सुक्कलेस्साए मोह० उक्क० जह० एगस०, उक्क० अंतोमु० । अणुक० ज. अंतोमु०, उक्क० तेत्तीससागरो० सादिरेयाणि ।
पूर्वकोटि है। इसी प्रकार सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत और संयता संयतोंके जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि सामायिक और छेदोपस्थानासंयतोंमें अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका जघन्य काल एक समय है।।
विशेषार्थ-यहाँ सब कालका स्पष्टीकरण मनःपर्ययज्ञानके समान कर लेना चाहिए । मात्र सामायिकसंयम और छेदोपस्थापनासंयमका जघन्य काल एक समय होनेसे इनमें अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका जघन्य काल एक समय कहा है।
६३८. दर्शनकी अपेक्षा चक्षुदर्शनियों में मोहनीयकर्मकी उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है। तथा अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल दो हजार सागर है । अवधिदर्शनियोंमें अवधिज्ञानीके समान भङ्ग है।
विशेषार्थ-जो चक्षुदर्शनी भवके अन्तिम समयमें उत्कृष्ट या अनुत्कृष्ट अनुभाग करके मरकर द्वितीय समयमें अचक्षुदर्शनी हो जाता है उस चक्षुदर्शनीके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागका जघन्य काल एक समय देखा जाता है, इसलिए वह उक्तप्रमाण कहा है । शेष कथन स्पष्ट ही है।
६३६. लेश्याकी अपेक्षा कृष्ण, नील और कापोत लेश्यावालोंमें मोहनीयकर्मकी अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल क्रमशः कुछ अधिक तेतीस सागर, कुछ अधिक सतरह सागर और कुछ अधिक सात सागर है। तेजोलेश्या और पद्मलेश्यावालोंमें मोहनीयकर्मकी उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है। तथा अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल क्रमशः कुछ अधिक दो सागर और कुछ अधिक अठारह सागर है। शुक्ललेश्याम मोहनीयकर्मकी उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूते है। तथा अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल कुछ अधिक तेतीस सागर है।
विशेषार्थ-जो कृष्णादि पाँच लेश्यावाला जीव अपने अपने लेश्याके प्रारम्भमें एक समय तक अनुत्कृष्टविभक्तिवाला होता है उसके अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका जघन्य काल एक समय होता है। इसी प्रकार पीत आदि तीन लेश्याओंमें उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका जघन्य काल एक समय घटित कर लेना चाहिए। मात्र शुक्ललेश्याम अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है, क्योंकि इस लेश्याम अनुत्कृष्टके बाद पुनः उत्कृष्टकी प्राप्ति सम्भव नहीं है। शेष कथन
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