Book Title: Kasaypahudam Part 05
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ $ २६. कालो दुविहो-जहएणओ उक्कस्सो चेदि । उकस्सए पयदं । दविहो णि सो-ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण मोह० उक्कस्साणुभागविहत्ती केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णुक्क० अंतोमुहुत्तं । अणुक्क० ज० अंतोमु०, उक्क० अणंतकालमसंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । एवं तिरिक्ख-एइंदिय-वणप्फदि--कायजोगि-णवंसयवेदमदि--सुदअण्णाण-असंजद--अचक्खु०--भवसि०--मिच्छादि०--असण्णि त्ति । णवरि तिरिक्ख०-कायजोगि०--णसयवेदेसु उक्क. अणुक्क० जह० एयसमओ। एइंदियवणप्फदि-असरणीसु उक्क० जह० एगसमओ । अनुभाग पाया जाता है उस मार्गणामें वही जघन्य अनुभाग है, उससे अतिरिक्त शेष अनुभाग अजघन्य अनुभाग है।
इस प्रकार जघन्य स्वामित्वानुगम समाप्त हुआ। ६२६. काल दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टसे प्रयोजन है । निर्देश दो प्रकार का है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमेंसे ओघकी अपेक्षा मोहनीय कर्मकी उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका कितना काल है ? जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है। अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका जघन्य काल अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट काल अनन्त काल अर्थात् असंख्यात पुद्गल परावर्तन है। इसी प्रकार तिर्यञ्च, एकेन्द्रिय, वनस्पतिकायिक, काययोगी, नपुंसकवेदी, मतिअज्ञानी, श्रुतअज्ञानी, असंयत, अचक्षुदर्शनी, भव्य, मिथ्यादृष्टि और असंज्ञी जीवोंमें जानना चाहिये। इतनी विशेषता है कि तिर्यञ्च, काययोगी और नपुंसकवेदी जीवों में उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका जघन्य काल एक समय और एकेन्द्रिय, वनस्पतिकायिक और असंज्ञी जीवोंमें उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका जघन्य काल एक समय है।
विशेषार्थ-ओघसे उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त ही है; क्योंकि उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करके काण्डकघातके बिना बहुत कालतक रहने पर भी अन्तर्मुहूर्तसे अधिक काल तक रहना संभव नहीं है। अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका जघन्य काल तो अन्तमुहर्त ही है, क्योंकि उत्कृष्ट अनुभागका घात करके अन्तमुहूर्त कालके बाद पुनः उत्कृष्ट अनुभागबन्ध कर सकता है। परन्तु उत्कृष्ट काल असंख्यात पुद्गल परावर्तन है, क्योंकि उत्कृष्ट अनुभागका घात करके अनुत्कृष्ट अनुभागके साथ पञ्च द्रियपर्यायमें अपने योग्य उत्कृष्ट काल तक रहकर पुनः एकेन्द्रियपर्यायमें चला जाने पर और वहाँ असंख्यात पुद्गल परिवर्तन विताकर पुनः पञ्चन्द्रिय होकर उत्कृष्ट अनुभाग करने पर उतना काल बन जायेगा। इसी प्रकार तिर्यञ्चसे लेकर असंही पर्यन्त जानना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि तिर्यञ्च, काययोगी और नपुंसकवेदीमें दोनों विभक्तियोंका जघन्य काल एक समय है, क्योंकि उत्कृष्ट अनुभागका अवस्थान काल एक समय प्रमाण शेष रहने पर यदि कोई अन्य गतिका जीव मरकर तियश्च हो या अन्य वेदवाला जीव मरकर नपुंसकवेदी हो तो तिर्यश्च और नपुंसकवेदीके उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका काल एक समय होता है। इसीप्रकार वचनयोग या मनोयोगमें स्थित उत्कृष्ट अनुभागकी सत्तावाला जीव उत्कृष्ट अनुभागकी सत्ताके एक समय प्रमाण शेष रहने पर काययोगी हुआ या काययोगमें वर्तमान कोई मिथ्यादृष्टि एक समय तक उत्कृष्ट अनुभागबन्ध करके दूसरे समयमें वचनयोगी या मनोयोगी हो गया तो उसके काययोगमें उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका काल एक समय होता है इसी प्रकार अनुत्कृष्ट अनु
१. प्रा० प्रतौ जह० उवसम० एइंदिय इति पाठः ।
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