Book Title: Kasaypahudam Part 05
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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गा० २२]
अणुभागवित्तीय सामित्तं
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ट्ठा दरिण समयाविरोहेण विहंगणाणं पडिवण्णस्स । सामाइय-छेदो० मोह० जहण्णाणुभागो कस्स ? चरिमसमयणियट्टिस्स खवगस्स । तेउ०- पम्म० सोहम्मभंगो | वेदग० मोह ज० कस्स ? दोवारमुवसमसेटिं चडिय ओदरिदूण दंसणमोहणीयं खविय पढमसमयकदकरणिज्जभावं गदस्स । एवमुवसम० । णवरि उक्संतकसायद्धाए हेडा वा ओरियमाण उवसमसम्मादिहिस्स । एवं सासण० - सम्मामिच्छादिट्ठीणं । एवं जहण्णसामित्ताणुगमो समत्तो ।
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दो बार उपशमश्रेणिपर चढ़कर उससे नीचे उतरकर आगमके अनुसार विभंगज्ञानको प्राप्त करता है अर्थात मरकर उपरिम ग्रैवेयकमें उत्पन्न होकर मिध्यात्वको प्राप्त करके विभंगज्ञानी हो जाता है उसके मोहनीयकर्मका जघन्य अनुभाग होता है । सामायिकसंयत और छेदोपस्थापनासंयतों में मोहनीयकर्मका जघन्य अनुभाग किसके होता है ? क्षपक अनिवृत्तिकरणगुणस्थानके अन्तिम समयवर्ती जीवकं होता है। तेजोलेश्या और पद्मलेश्या में सौधर्म स्वर्गकी तरह भंग जानन चाहिये । अर्थात जो दो बार उपशमश्रेणि पर चढ़कर पीछे दर्शनमोहनीयका क्षय करके देवों में उत्पन्न हो और वहाँ उसके तेज या पद्मलेश्या हो तो तेजोलेश्या या पद्मलेश्या की अपेक्षा उस जीवके मोहनीयकर्मका जघन्य अनुभाग होता है । वेदकसम्यग्दृष्टियों में मोहनीय कर्मका जघन्य अनुभाग किसके होता है ? जो दो बार उपशमश्रेणिपर चढ़कर, उतरकर, दर्शन मोहनीयका क्षय करके कृतकृत्यपनेको प्राप्त हुआ है उसके प्रथम समय में मोहनीयका जघन्य अनुभाग होता है । इसी प्रकार उपशमसम्यग्दृष्टि के जानना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि उपशान्तकषाय गुणस्थानके कालमें विद्यमान अथवा नीचे उतरकर विद्यमान उपशमसम्यग्दृष्टि जीवके माहनीयकर्मका जघन्य अनुभाग होता है । अर्थात् वह उपशमसम्यग्दृष्टि ग्यारहवें गुणस्थानमें हो या उससे नीचे उतर गया हो उसके मोहनीयकर्मका जघन्य अनुभाग होता है । इसी प्रकार सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टियों के जानना चाहिये ।
विशेषार्थ - ऊपर सौधर्म स्वर्गसे लेकर जिन मार्गणात्रों में मोहनीयकर्मके जघन्य अनुभाग का स्वामित्व बतलाया है उनमें यदि क्षपकश्रेणि संभव है तो क्षपकश्रेणिमें अपने अपने क्षयकाल के अन्तिम समयमें मोहनीयकर्मके जघन्य अनुभागका स्वामित्व जानना चाहिये । जैसे स्त्रीवेदी आदिमें | किन्तु जिनमें क्षपकश्रेणि संभव नहीं है उनमें यदि उपशमश्र णि हो सकती है तो दूसरी बार उपशमश्रेण पर चढ़े हुए जीव ययायोग्य जघन्य अनुभागके स्वामी होते हैं । किन्तु जिनमें उपशमश्र णि भी संभव नहीं है उन मार्गणाओं में दूसरी बार उपशम शि पर चढ़कर नीचे गिरकर दर्शनमोहनीयका क्षपण करनेवाला जीव विवक्षित मार्गणावाला होने पर जघन्य अनुभागका स्वामी होता है । किन्तु दर्शनमोहनीयका क्षपण करके जिन मार्गणाओं में जाना शक्य नहीं है जैसे विभंगज्ञान, उपशमसम्यग्दर्शन आदि तो उनमें दूसरी बार उपशमश्र णि पर चढ़कर नीचे गिरनेवाला जीव ही दर्शनमोहनीयका क्षपण किये बिना विवक्षित मार्गणावाला होने पर जघन्य अनुभागका स्वामी होता है । सारांश यह है कि जिस मार्गणा में जिस प्रकारसे जिस जीवके जघन्य अनुभागकी सत्ता रह सकती है उस मार्गणा में उस प्रकारसे उस जीवके जघन्य अनुभागका स्वामित्व जानना चाहिये। उससे अतिरिक्त प्रकारके जीवोंके उसी मार्गणा में अजघन्य अनुभाग होता है । यहाँ इतना विशेष जानना चाहिये कि जिस मार्गणा में मोहनीयका जो सबसे कम
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