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जैन धर्म में अहिंसा
कछुआ और पक्षी आदि यज्ञ में मारे जाने पर फिर श्रेष्ठ जन्म धारण करते हैं । मधुपर्क, ज्योतिष्टोम आदि यज्ञ, पितृकर्म तथा देवकर्म के अलावा हिंसा नहीं करनी चाहिए । वेद का ज्ञाता द्विज मधुपर्क आदि कर्मों में पशुबलि देकर उस पशु तथा अपने को उत्तम गति का अधिकारी बनाता है । गृह में या गुरुकुल, या वन यानी ब्रह्मचर्यं आश्रम या गृहस्थाश्रम या वानप्रस्थ या आपत्ति में आ जाने पर भी एक आत्मनिष्ठ ब्राह्मण को चाहिए कि वह वेदविरुद्ध हिंसा न करे । चूंकि धर्म वेद से निकलता है, वेदविहित हिंसा तथा इस चरा चर नियत हिंसा को हिंसा न समझकर अहिंसा ही मानना चाहिए । जो अपने सुख की इच्छा से यानी यज्ञों के अलावा अहिंसक पशुओं को मारता है वह किसी भी जीवन में सुख नहीं पाता । जो देवता, पितरों को अर्पित किये बिना दूसरे के मांस से अपना मांस बढ़ाना चाहता है उससे बढ़कर निकृष्ट या पापी अन्य कोई नहीं हो सकता ।'
१. यज्ञाय जग्धिर्मासस्येत्येष देवो विधिः स्मृतः । प्रतोऽन्यथा प्रवृत्तिस्तु राक्षसो विधिरुच्यते ॥३१॥ क्रीत्वा स्वयं वाऽप्युत्पाद्य परोपकृतमेव वा । देवान्पित' श्चार्चयित्वा खादन्मांसं न दुष्यति ॥ ३२ ॥ नाद्यादविधिना मांसं विधिज्ञोऽनापदि द्विजः । जग्ध्वा ह्यविधिना मांसं प्रेत्य तैरद्यतेऽवशः ||३३|| न तादृशं भवत्येनो मृगहन्तुर्धनार्थिनः ।
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यादृशं भवति प्रेत्य वृथामांसानि खादतः ॥ ३४ ॥ नियुक्तस्तु यथान्यायं यो मांसं नाति मानवः । स प्रेत्य पशुतां याति संभवानेकविंशतिम् ॥ ३५॥ प्रसंस्कृतान्पशून्मन्त्रैर्नाद्याद्विप्र:
कदाचन ।
मंत्रैस्तु संस्कृतानद्याच्छाश्वतं विधिमास्थितः । ३६ M कुर्याद् घृतपशु संगे कुर्यात्यिष्टपशुं तथा । न त्वेव तु वृथा हन्तुं पशुमिच्छेत्कदाचन ॥ ३७ यावन्ति पशुरोमाणि तावत्कृत्वो ह मारणम् । वृथा पशुधन: प्राप्नोति प्रेत्य जन्मनि जन्मनि ॥ ३८
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